प्राक्कथन
तन्त्र साधना के लिख मुख्यत दो लगि बतलाये गये हैं (१) दक्षिणमार्ग एवं (२) वाममार्ग दक्षिणाचार में सात्त्विक पूजन का विधान है जिसके द्वारा दिव्य साधना होती है। इसके लिए साधक को शुद्धाशुद्ध का भेदमाव रखना आवश्यक होता है। पुरन्तु वामाचार में समस्सत प्रकार के भक्ष्याभक्ष्य पदार्थ सदैव ग्राह्या माने जाते हैं। वामाचार में की प्रधानता होती है जिसमें उपासना के निमित मांस मदिरा मत्स्य मुद्रा एवं मैथुन इन पंच मकारों की आवश्यकता अनिवार्य रूप से होती है।
जहाँ एक ओर कुछ लोगों का मानना है कि वामाचार की प्रक्रिया अत्यन्त निकृष्टतम है, वहीं दूसरी ओर अनेक लोगों की अवधारणा है कि वामाचार की विधि साधक के लिए सद्य सिद्धिदायक कारण के रूप में सामने आती है। उसक सिद्धि पाने के लिए एक लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। तन्त्र साधना के निमित्त साधक को गुरु द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करना नितान्त आवश्यक होता हैं। जो लोग गुरुदीक्षा ग्रहण किये बिना इस मार्ग में अग्रसर होते हैं उन्हें लाभ होने के बदले हानि अधिक उठानी पड़ती है।
वस्तुत शक्ति उपासना की महत्ता को किसी भी दशा में नकारा नहीं जा सकता। आद्याशक्ति भगवती ही चराचर जगत की उत्पादिका पालिका तथा संहारिका हैं। इन्हीं आद्याशक्ति के द्वारा ही ब्रह्मा विष्णु, तथा शिव की उत्तपत्ति मानी गयी है। ये ही जगन्माता है।
ये ही महासरस्वती महालक्ष्मी एवं महाकाली के नाम से विश्वविश्रुत हैं। इन आद्याशक्ति के ही चण्डिका चामुण्डा तथा दुर्गा आदि विभिन्न नाम एवं रूप हैं। भक्तों के दुखार्त्त होने पर ये भगवती ही अपने भक्तों को त्राण दिलाती एवं उन्हें भयमुक्त करती हैं।
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