हिन्दी साहित्येतिहास में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक पुरुष साहित्यकारों के मध्य अनेक महिला साहित्यकार भी विद्यमान रही हैं। यह पुस्तक इतिहास के पन्नों से विलुप्त लेखिकाओं को प्रकाश में लाने का प्रयास करती है। इस पुस्तक में भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन कवयित्रियों को संकलित करते हुए, उनके काव्य का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। भारतेंदु एवं द्विवेदी युग में स्त्री-काव्य लेखन का विस्तार राजघरानों से लेकर मध्य वर्गीय प्रतिष्ठित परिवारों तक होने लगा था। भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन चयनित कुल 20 कवयित्रियों में महारानी वृषभानु कुँवरि, महारानी कमल कुमारी 'जुगल प्रिया', बाघेली रणछोर कुँवरि, बाघेली विष्णुप्रसाद कुँवरि, रत्नकुँवरि बाई, चन्द्रकला बाई, महारानी रघुराज कुँवरि 'रामप्रिया', महारानी गिरिराज कुँवरि, राजमाता दियरा रानी रघुवंश कुमारी, निधि रानी और रूपकुमारी चंदेल राजपरिवारों से संबंधित थीं। जबकि हेमंत कुमारी चौधरानी, राजरानी देवी, सरस्वती देवी 'शारदा', गुजराती बाई 'बुंदेल बाला', गोपाल देवी, रमा देवी, राजदेवी, ज्वाला देवी और रामेश्वरी नेहरू का सम्बन्ध धनी और प्रतिष्ठित परिवारों से था।
इस रूप में भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन कवयित्रियों की राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक एवं साहित्यिक पृष्ठभूमि पृथक-पृथक थी। राजपरिवार की स्त्री भागवत भक्ति परक काव्य लिख रही थीं। उनके काव्य में कहीं-कहीं प्रसंगवश सामाजिक बुराइयों के प्रति विरोध भी दिखाई देता है। किन्तु जिन कवयित्रियों का सम्बन्ध राजपरिवारों से नहीं था, उनके काव्य में युगीन चेतना दृष्टिगत होती है। ये कवयित्रियाँ राष्ट्रीय चेतना, स्त्री-चेतना और सामाज सुधार जैसे विषयों को लेकर काव्य लेखन कर रही थीं। इन कवयित्रियों के काव्य में लोक, समाज, संस्कृति, नीति, भक्ति और प्रकृति का चित्रण भी किया गया है। काल के प्रभावानुरूप कुछ कवयित्रियाँ खड़ीबोली की ओर बढ़ रही थीं और कुछ ने ब्रजभाषा एवं अन्य क्षेत्रीय बोलियों को ही काव्य का माध्यम बनाया हुआ था। ऐसे ही तथ्यों को सहेज कर यह पुस्तक लेखिकाओं की विलुप्त कड़ियों को जोड़ते हुए, हिन्दी साहित्येतिहास को समग्रता प्रदान करती है।
डॉ. कपिल कुमार गौतम (जन्म: 3 अप्रैल 1994) महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली उत्तर प्रदेश के 'संघटक राजकीय महाविद्यालय' मीरापुर बांगर, बिजनौर में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी) के पद पर कार्यरत हैं। 'समकालीन हस्तक्षेप' मासिक शोध पत्रिका के संपादक हैं। इससे पूर्व प्रैक्सिस इंटरनेशनल जर्नल ऑफ सोशल साइंस एंड लिट्रेचर (PIJSSL) में 3 वर्ष से अधिक उप-संपादक का दायित्व निर्वहन किया है। चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश से बी.ए. (हिन्दी, इतिहास, राजनीति विज्ञान) और एम.ए. (हिन्दी)। साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय, साँची, मध्य प्रदेश के हिन्दी विभाग से एम.फिल. (ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' कृत 'स्त्री-कवि-कौमुदी' में निहित उत्तर-मध्यकालीन कवयित्रियों की चिंतन दृष्टि)। डॉक्टर हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश से पीएच.डी. (भारतेंदु एवं द्विवेदी युगीन कवयित्रियों के काव्य का आलोचनात्मक विश्लेषण)। हिन्दी में यूजीसी नेट और जेआरएफ की परीक्षा उत्तीर्ण हैं। दर्जनों राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध-पत्रों का वाचन किया है। साहित्य, समाज, इतिहास, विमर्श इत्यादि से संबंधित दो दर्जन से अधिक शोध-पत्र विभिन्न प्रतिष्ठित राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। दो पुस्तकें प्रकाशित हैं, क्रमशः उत्तर-मध्यकालीन कवयित्रियों और उनका काव्य चिंतन, संजीव बख्शी कृत उपन्यास 'भूलन कांदा' में आदिवासी जीवन ।
प्राक्कथन
हिंदी साहित्येतिहास लेखन प्रारंभ से ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहा है। साहित्येतिहासकारों एवं आलोचकों की व्यक्तिगत वैचारिक दृष्टि का प्रभाव हिंदी साहित्येतिहास लेखन पर भी पड़ा है। भारतेंदु और द्विवेदी युग को भी आलोचकों ने अपने पूर्वाग्रहों से निवद्ध चश्मों से ही देखा है। जिसके कारण करीब सत्तर वर्षों की इस समयावधि में कोई कवयित्री आलोचकों एवं इतिहासकारों को नजर ही नहीं आयी है। यह कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि मीराबाई और महादेवी वर्मा के मध्यांतर में हिंदी साहित्य कवयित्री विहीन रहा होगा। उत्तर-मध्यकाल की विपरीत परिस्थितियों में भी करीब 18 कवयित्रियाँ उत्कृष्ट काव्य लेखन कर रहीं थीं। आधुनिक काल में तो महिलाओं के हित में समाज-सुधार आन्दोलन भी संचालित थे। तदापि कैसे संभव हो सकता है कि इस समय महिलाओं में साहित्यिक अभिरुचि उत्पन्न ही नहीं हुई अथवा उन्होंने काव्य लेखन किया ही नहीं। निश्चित रूप से हिंदी साहित्येतिहास की अपूर्णता ने कवयित्रियों को विलोपित करने का कार्य किया है।
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