निवेदन
आज हम जहाँ भी दृष्टि डालते हैं वहीं अशान्ति हीं अशान्ति छायी हुई मिलती है । मनुष्य भोगोंके भोगनेमें ही अपने उद्देश्यकी पूर्ति मानता है । वह यह नहीं विचारता कि भोग तो सभी योनियोंमें प्रारब्धसे प्राप्त हो रहे हैं, किन्तु यह मनुष्ययोनि हमें किस विशेष उद्देश्यके लिये मिली है । यदि मनुष्य जन्म पाकर भी हम बार बार जन्मते मरते रहें तो हमने मनुष्य जन्म पाकर क्या विशेषता प्राप्त की । जबतक मनुष्य स्थायी शान्ति तथा भगवत्प्रेमकी प्राप्ति न कर ले, तबतक वह संसारचक्रमें भटकता ही रहेगा । इसलिये मनुष्य जन्मका एकमात्र उद्देश्य यही है कि हम चिर शान्ति तथा भगवत्प्रेम अवश्य प्राप्त कर लें ।
श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका जो गीताप्रेसके संस्थापक थे, उनके एक ही लगन थी कि मनुष्य हर समय भगवन्नाम जप करता रहे, ध्यान करता रहे, निषिद्ध कर्मोंका त्याग कर दे ताकि वह चिर शान्ति तथा भगवत्प्रेम प्राप्त कर सके । इसके लिये उन्होंने वर्षोंतक स्थान स्थानपर सत्संगका आयोजन किया तथा ग्रीष्मकालमें स्वर्गाश्रममें वटवृक्षके नीचे, गंगाके किनारे महान् पवित्र स्थान तथा वैराग्यकी भूमिमें अपने जीवनकालके बहुत वर्षोंतक सत्संगका आयोजन किया ।
वटवृक्षके नीचे तथा अन्य स्थानोंपर उन्होंने जो प्रवचन दिये थे, उन्हें लिपिबद्ध कर लिया गया था । अब उन प्रवचनोंको पुस्तकके क्रयमें आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है ।
इन प्रवचनोंके पढ़नेसे हमारेमें भगवान्के प्रति श्रद्धा तथा प्रेम अवश्य जागृत होगा । हमें इन प्रवचनोंका एकाग्रतापूर्वक अध्ययन करना चाहिये । आशा है आपलोगोंको इनके अध्ययनसे विशेष माध्यात्मिक लाभ होगा ।
विषय सूची
1
भक्तोंके लक्षण
5
2
भगवान्की लीलामें नीति, दया धर्मका अवलोकन
11
3
भगवत्प्रेम ही साध्य है
16
4
भगवान्की दया और प्रेममें मुग्ध होकर उनकी प्रतीक्षा करते रहें
29
ब्रह्मचर्य पालनकी महिमा
46
6
नाम और रूपकी प्रतिष्ठा चाहना मृत्युके तुल्य है
50
7
सर्वत्र परमात्मदर्शन करें
59
8
द्रष्टा साक्षीका विषय
70
9
धैर्य और धर्मका त्याग न करें
72
10
भगवन्नाम महिमा
85
भगवान्की आज्ञा मानना ही भक्ति है
97
12
वैराग्य, उपरतिसे ब्रह्मकी प्राप्ति
103
13
मनको वशमें कैसे करें?
109
14
ध्यानकी विधि
114
15
मनुष्यके लिये असम्भव कुछ भी नहीं?
123
संसारका स्वरूप
132
17
भक्तिका प्रभाव
135
18
श्रद्धाका स्वरूप
142
19
शान्ति और प्रेमकी प्राप्ति
144
20
महात्माके गुण
153
21
समष्टि बुद्धिके सम्बन्धमें चर्चा
157
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