काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को कोई शत्रु कहता है कोई इन्हें चोर कहता है, कोई इन्हें सब अवगुणों की जड़ कहता है । महात्मा लोग भी यही कहते हैं कि इनको मारो मगर इनका मारना इतना सरल नहीं जितना कह देना। शास्त्रकारों और संत महात्माओं ने भी बहुत कुछ लिखा है। बड़े-2 ग्रन्थ रचे गये हैं मगर गुत्थी अब तक सुलझ नहीं सकी है। हर एक अंग इतना प्रबल है कि उससे निकलना महा दुर्लभ है। कोई कहे कि मैंने इनको मार लिया है तो सम्भव है कि किसी ने स्थूल भावों को वश में कर लिया हो मगर सूक्ष्म और कारण भावों को वश में करना और भी दुर्लभ है। महर्षि शिवव्रतलाल जी महाराज जो अनुभवी योगी और सन्त थे उन्होंने इनका विवरण विस्तारपूर्वक दिया है। इन लेखों में यह बताया है कि इनके वश में करने के लिये सरल और सुगम उपाय क्या हैं। इनको समझाने के लिये उदाहरण भी दिये गये हैं । मनुष्य जितने पूजा-पाठ, जप-तप, संध्या, भजन आदि करता है वह मन की इन्हीं वृत्तियों की रोकथाम के लिये करता है। इस पुस्तक के बार बार पाठ करने से और इन पर विचार करने से, यदि कोई मनुष्य वास्तविक रूप से इनको वश में करना चाहता है बहुत कुछ उपयोगी सामग्री मिलेगी । इसकी शिक्षाओं पर अमल करने से आपको आशातीत लाभ होगा ।
जब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का त्याग नहीं होता, तब तक मनुष्य सच्चे अर्थ में नेक नहीं हो सकता, क्योंकि कुल बुराईयों की जड़ इन ही में है। इनका त्यागे करना सरल नहीं है। यह सब मानव के भाव हैं। सन्त मत में त्याग का अर्थ वह नहीं है जो जनसाधारण का ख्याल है। इसका साराँश यह है कि इनको नियोजित बना दो ताकि यह नीचे से ऊँचे हो जाय। जिस तरह मिट्टी का ढेला बारीक होकर जमीन छोड़ देता है और वायु में उड़ कर ऊँचे आकाश पर जा पहुँचता है अथवा बर्फ का पानी गर्मी पाकर भाप बनकर ऊपर की ओर चढ़ने लगता है, इसी तरह मानवीय भाव को भी यदि प्रेम के आधीन कर दिया जाय तो यह हानिकर सिद्ध होने के बजाय लाभदायक सिद्ध होंगे, जिससे मनुष्य की भलाई हो सकती है ।
सन्त मत का ज्ञान शिष्टाचार और शिष्टाचार की शिक्षा सार्वभौमिक (आलमगीर) सिद्धान्त पर आधारित है । इसका शिष्टाचार में ज्ञान उच्चतर है । इस शिष्टाचार पर सन्तों की बाणियाँ भरी पड़ी है। इस बात को कभी न भूलना चाहिये कि शिष्टाचार के पालन से आत्मिक उन्नति सम्भव है। शिष्टाचार की जड़ आत्मा में है। इसलिये बार- बार कहा जाता है कि तुम लोग सत्संग किया करो । सत्संग की सहायता से तुम्हारी दृष्टि ऊंची होती जायेगी । दृष्टि ऊंची होने से एक ओर अध्यात्मिक उन्नति का लाभ होगा और दूसरी ओर शिष्टाचार का सार भी सुगमता से हाथ आ जायगा । यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो केवल शिष्टाचार की डींग मारने से असली लाभ जो आत्मा की ओर जाने का है, वह कभी प्राप्त न होगा और मनुष्य कोरे का कोरा बना रहेगा। असली सभ्यता जो शिष्टाचार की जान है, वह केवल अध्यात्मिक पूर्ति के साथ-साथ प्राप्त होती है। अध्यात्मिक पूर्ति मानव जीवन को उच्च कर देती है ।
दुनियां में सब लोग कहा करते हैं कि तुम नेकी करो मगर कोई व्यक्ति यह नहीं बताता कि हम नेकी क्यों करें और नेकी किस तरह करें। इस पर कम लोग विचार करते होंगे अन्यथा आमतौर पर सब लोग शब्दों के जाल में बुरी तरह से बहे जाते हैं। कहीं- कहीं इन आवश्यक प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश भी की जाती है मगर वह सन्तोषजनक नहीं है। कोई व्यक्ति कहता है कि सामाजिक अवस्था के स्थित रखने के लिये नेकी करना है और इसी का नाम नेकी है। कुछ लोगों का दावा है कि यदि मनुष्य नेकी न करेगा तो वह बुरे काम करेगा और बुरे कर्मों में फँसकर दण्ड पायेगा मगर इन उत्तरों से सन्तोष नहीं होता ।
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