पुस्तक में रामपुर सदारंग परंपरा की विद्वान संगीतज्ञ एवं मूर्धन्य शास्त्रीय गायिका विदुषी सुलोचना बृहस्पति की सांगीतिक जीवन यात्रा पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। विदुषी सुलोचना बृहस्पति (मां जी) की संगीत साधना एवं संगीत यात्रा छह दशकों से भी अधिक समय तक अनवरत चलती रही। देश की शीर्षस्थ शास्त्रीय गायिकाओं एवं संगीतज्ञों में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनकी संगीत यात्रा इतनी विराट एवं महान है कि उन्हें शब्दों में संकलित कर पाना एक दुष्कर कार्य है, फिर भी मैंने प्रयास किया है कि उनके जीवन के कुछ पलों को संगीत प्रेमी विद्यार्थियों एवं पाठकों के सम्मुख ला सकूं। मेरा प्रयास रहा है कि पुस्तक में संकलित सभी अध्याय संक्षिप्त एवं रुचिकर हों।
पुस्तक के लेखक डॉ. निर्मल पांडे रामपुर परंपरा की मूर्धन्य गायिका एवं प्रसिद्ध संगीतज्ञ विदुषी सुलोचना बृहस्पति जी के शिष्य हैं। उत्तराखंड निवासी डॉ. निर्मल पांडे ने कुमाऊं विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक करने के उपरांत संगीत की प्रारंभिक शिक्षा आचार्य चंद्रशेखर तिवारी, पंडित महादेव गोविंद देशपांडे, एवं पद्मश्री पंडित विनय चंद्र मौद्गल्य जी से प्राप्त की। तत्पश्चात आपने विदुषी सुलोचना बृहस्पति जी से गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत वर्षों शास्त्रीय गायन की विधिवत शिक्षा प्राप्त की।
गंधर्व महाविद्यालय से संगीत विशारद, दिल्ली विश्वविद्यालय से संगीत शिरोमणि, खैरागढ़ विश्वविद्यालय से एम. ए. (गायन) एवं आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही आपने यू.जी.सी. नेट परीक्षा भी उत्तीर्ण की है। आप शास्त्रीय गायक के साथ-साथ शिक्षक के रूप में भी कार्यरत हैं। पूर्व में प्रकाशित आपकी तीन पुस्तकों के अतिरिक्त आपके अनेक संगीत विषयक आलेख भी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।
आप गंधर्व महाविद्यालय, खैरागढ़ विश्वविद्यालय एवं अन्य संस्थाओं द्वारा परीक्षक के रूप में भी आमंत्रित किए जाते हैं। आप आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के अनुमोदित कलाकार हैं।
आपको चंबा शिल्प परिषद, हिमाचल प्रदेश, गांधी हिंदी साहित्य सभा, दिल्ली, संगीत कला केंद्र, आगरा एवं कस्तूरी कला केंद्र, अलीगढ़ द्वारा संगीत सेवाओं के लिए सम्मानित भी किया गया है।
नहिं ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिहि विद्यते ।
श्री मद्भगवत गीता (अध्याय ४, ३८वां श्लोक)
ज्ञान दिव्य है। ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई नहीं है अर्थात ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। भारत भूमि ज्ञानियों, ऋषियों, मुनियों, साधकों और संतों की धरा है। ज्ञानियों के कारण ही भारत को विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त हुआ है। इस अद्भुत ज्ञान का संचार मानव मात्र में बिना गुरु के कदापि संभव नहीं है। नाद का महासागर विशाल है। इस आत्मनाद की पहचान बिना गुरु कदापि संभव नहीं है। यही नाद साधक को नादब्रह्म से जोड़ता है और अलौकिक नाद से संसार को अभिभूत करता है। इसी परम साधना से परमपिता परमेश्वर से तादात्म स्थापित किया जाता है। भारतीय साहित्य ऐसे महापुरुषों के नामों से भरा पड़ा है जिन्होंने नाद ब्रह्म की साधना करके परमपिता परमेश्वर को पाया है। इनमें मीरा, सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, नरसी मेहता, गुरु नानक आदि प्रमुख हैं।
"नाद ब्रह्म की साधना, कर ले रे नादान।
दोऊ लोक संवार दे, 'ब्रजरंग' अब तो जान" ।।
वर्तमान काल में ऐसी ही एक विभूति हैं विदुषी सुलोचना बृहस्पति जी। जिन्होंने बाल्यकाल से ही सुरगंगा में जो गोते लगाना शुरू किया वह अनेकों दशक बीत जाने पर आज भी सतत जारी है।
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