श्री ताराचन्द पण्डया "श्याम" एक गूढ़ विचारक होने के साथ ही सुविज्ञ लेखक भी है। उन्होंने "सूतपुत्र" और "याज्ञसेनी" जैसे महाभारत के पात्रों पर दो श्रेष्ठ उपन्यास हिन्दी साहित्य को दिये है। मुझे भी महाभारत ने अत्यंत ही आकृष्ट किया है। विशेषतः विदुर के चरित्र से मैं बहुत प्रभावित हूँ, इसलिये जब मैंने श्री पण्डया जी से विदुर पर लिखने का आग्रह किया तो उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। महाभारत अथाह सागर है और जब तक उसमें गहराई तक गोता नहीं लगता रत्न हाथ नहीं आतें। ऐसे ही गोते के फलस्वरूप यह ग्रन्थ अस्तित्वगत हुआ है। महात्मा विदुर जो महाभारत का केन्द्रीकृत पात्र है, के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य शोध पूर्ण ढंग से इस ग्रन्थ में अनावृत्त हुए हैं।
यह ग्रन्थ पांच अध्यायों में विभक्त है-आर्विभाव, सत्यमवद्, धर्मो रक्षति रक्षितः अन्तर्धान और भज गोविन्दम। इन पांचों अध्यायों में महात्मा विदुर के समग्र स्वरूप का चित्रांकन हुआ है।
इस पुस्तक का प्रथम अध्याय है-आर्विभाव, विदुर का जन्म। इसमें विद्वान लेखक ने श्रीमद् भगवतगीता के तत्वज्ञान की भूमिका से प्रारंभ कर कौरव पाण्डवों की वंश परंपरा का विशद उल्लेख किया है। इस राजवंश ने लगातार इक्कावन पीड़ियों तक शासन किया। संसार के इतिहास में ऐसा उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर, महर्षि वेद व्यास के नियोग पुत्र हैं। विदुर के जन्म पर महर्षि वेदव्यास ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक लोक जीवन में धर्मात्मा होगा और समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होगा। यह भविष्यवाणी सत्य साबित हुई।
दूसरा अध्याय है-सत्यम वद्। इस अध्याय में लेखक ने सत्यवादिता से ओतप्रोत विदुर के चरित्र को प्रकाशित किया है। सत्यवादिता के अवंलब एवं आच्छादन से प्राप्त बल तथा प्रतिष्ठा के कारण, राजसत्ता से असहमत होते हुए भी न केवल हस्तिनापुर बल्कि समस्त भूमंडल में विदुर की साख है। खटमंडली को वे बिना लाग लपेट के ललकार देते हैं। विदुर का चरित्र सत्य के प्रति प्रतिबद्ध यौक्तिक आचरण से प्रतिबिंबित है इसलिये लेखक ने सही ही लिखा है कि विदुर में समुद्र सी गहराई, घने वन सी शान्ति तथा मृण पात्र जल सी शीतलता है। गहराई, शान्ति तथा शीतलता सत्य की ही उपज हैं।
तीसरा अध्याय है-धर्मो रक्षति रक्षितः । इसमें लेखक ने विदुर के चरित्र के परिप्रेक्ष्य में विविध धर्म शास्त्रों का उल्लेख करते हुए धर्म के विस्ताविक स्वरूप को स्पष्ट किया है। यह मुख्यतः विदुर तथा धृतराष्ट्र के मध्य संवाद है। विदुर ने उपाख्यान देकर धृतराष्ट्र को धर्ममार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। यह भी बताया कि सारे पारिवारिक और आतमीय रिश्तों का अंत दर्शन क्षय में, भौतिक उन्नति का अंत पतन में, सारे संबंधों का अंत विछोह में और जीवन का अंत मृत्यु में ही है। किन्तु धृतराष्ट्र जो अपने पूर्वाग्रहों के अनुरूप ही सुनना चाहता था, पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। विदुर वस्तुतः राजनीतिज्ञ नहीं राजनयिक धर्म का विशाल जहाजी बेडा है जिसके संचालन में सहायक भीष्म, द्रोण, कृष्ण भी हैं। धर्म से आच्छादित विदुर की राजनयिकता सर्व मंगलकारी है।
चौथा अध्याय है-अन्तर्धान। युधिष्ठिर तथा विदुर दोनों है धर्मराज के अवतार। महाभारत के बाद युधिष्ठिर सिंहासनारूढ़ हुए तथा कुन्ती सहित गांधारी एवं धृतराष्ट्र वानप्रस्थी हो गए। विदुर भी वनगमन कर तपस्यालीन हो गए और केवल वायु पीकर रहने लगे। इधर युधिष्ठिर को विदुर दर्शन की इच्छा हुई तो भाइयों सहित वन में उनसे भेंट करने गए। मुख में पत्थर का टुकड़ा लिये जटाधारी कृशकाय विदुर ने जब युधिष्ठिर को देखा तो वे योगबल से युधिष्ठिर (धर्मराज) के शरीर में समा गए-शरीर में शरीर, प्राणों में प्राण समाहित हो गए। आकार आकार में समा कर निराकार हो गया। देह का देह में समा जाना अद्वितीय है और मोक्ष का ऐसा भौतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप भी अद्वितीय है।
ग्रन्थ का समापन "भज गोविन्दम" अध्याय से है। वस्तुतः यह लेखक के दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन है। लेखक स्वयं एक अध्यात्मवादी व्यक्ति है। उन्होंने धर्म के गूढ रहस्यों को जाना पहचाना है। वे स्वयं वैसा पवित्र जीवन जीते भी हैं। विदुर के संबंध में उनके द्वारा उल्लेखित यह श्लोक अत्यंत ही सार्थक है।
शैले न माणिक्यं, मोक्तिकं न गजै गजै, साधवों ना हिं सर्वत्र, चन्दनं न वनै वनै।
लेखक के शब्दों में विदुर महाभारत का वैदुर्यमणि है जो महाभारत के भीतर और बाहर जगमगाता "सत्यमेवजयते" का संदेश देता है। इस ग्रन्थ की भाषा शैली सहज, सरल, रोचक एवं प्रवाहमय है। कहीं कहीं अंग्रेजी शब्दों का उपयोग किया गया है। हिन्दी में शब्द भंडार की कोई कमी नहीं है। अतः लेखक इस ओर ध्यान दे तों यह उनकी सदाशयता होगी। अन्ततः सभी दृष्टि से लेखक इस अभूतपूर्व ग्रन्थ के लिये साधुवाद तथा बधाई के पात्र है।
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