मानव सशक्तीकरण से अभिप्राय जनसामान्य द्वारा अपने लिए विविध प्रकार के विकल्प चुनने के लिए शक्ति प्राप्त करने से है, यह शक्ति स्वतन्त्रता और क्षमता में वृद्धि होने से आती है। मुख्यतः सशक्तीकरण, आत्मसशक्तीकरण की प्रक्रिया और लोगों के पेशेवर समर्थन दोनों को सन्दर्भित करता है, जो उन्हें शक्तिहीनता एवं प्रभाव की कमी की भावना को दूर करने तथा अपने संसाधनों को पहचानने और उपयोग करने में सक्षम बनाता है। यह व्यक्ति के मजबूत और अधिक आत्मविश्वासी बनने की प्रक्रिया है जिससे यह स्वयं के जीवन स्तर को सुधारता है तथा सन्तुष्ट एवं प्रसत्र रहता है। वर्तमान समय के उत्तर आधुनिक और उत्तर औद्योगिक समाज में वैश्वीकरण की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप जनमानस में महत्वाकांक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं तथा उपभोग यादी संस्कृति का विस्तार होता जा रहा है। टेक्नोक्रेटिक संस्कृति के तीव्र विकास के कारण समाज के सक्षम वर्ग के लोग प्रगति करते जा रहे हैं पर निर्धन तथा शक्तिहीन वर्ग हाशिए पर सिमटते जा रहे हैं जिससे गरीब और अमीर के बीच का फासला बढ़ता जा रहा है। अब यह अत्यधिक आवश्यक है कि गरीब, यंधित एवं उपेक्षित वर्ग के लोगों को सशक्त बनाया जाए ताकि वे राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे सकें।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही हमारा राष्ट्र निरन्तर निर्धनता, अशिक्षा तथा कुपोषण को दूर करने का प्रयास करता रहा है, परन्तु आज भी अपेक्षानुरूप सफलता की प्राप्ति नहीं हो सकी है। वर्तमान मे भारत की कुल आबादी के 22 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद भी वर्तमान भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पुरुषों की अपेक्षा निम्न है।
समाज के सन्तुलित विकास हेतु योजनाओं की रणनीति में मानव सशक्तीकरण केन्द्रीय होना चाहिए। मानव विकास एवं मानव सशक्तीकरण द्वारा एक ओर उनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है तो दूसरी ओर उनकी प्रजननता में भी कमी आती है, यह दोनों ही घटक सतत विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। 1950 से 1970 के बीच की अवधि में दुनिया के विभिन्न देशों में विकास योजना की रणनीतियों में एक बड़ा बदलाव आया। 1950 के दौरान आमतौर पर सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए पूँजी तथा सहायक भौतिक आधारभूत ढाँचे की कमी को विकास की प्रमुख बाधाओं के रूप में देखा गया और सर्वाधिक बल बचत और निवेश की दर बढ़ाने पर दिया गया। सामाजिक कारकों, मानव पूँजी में निवेश एवं मानव हितों की उपेक्षा के कारण 1960 के दशक में इस दृष्टिकोण के कारण असन्तोष पैदा होने लगा। बाद में विकास योजनाओं का एक नया युग प्रारम्भ हुआ जिसमें मानव कल्याण हेतु निवेश को उतना ही महत्व दिया गया जितना अन्य निवेशों को दिया जाता रहा था। इस नवीन युग में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को विकास का उचित संकेत न मानकर गरीबी दूर करने और लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए राष्ट्रीय आय का समान वितरण आदि विकास योजना का प्रमुख लक्ष्य बन गया। अब मानव विकास एवं मानव सशक्तीकरण को केन्द्र में रखकर विकास योजनाएँ निर्मित की जाने लगीं और यह स्वीकार किया गया कि जब तक मानव का विकास नहीं होगा तथा समाज का प्रत्येक व्यक्ति सशक्त होकर विकास के कार्यों में अपनी भागीदारी नहीं देगा तब तक सन्तुलित विकास प्राप्त नहीं किया जा सकता।
मानव सशक्तीकरण लोगों की और आत्म निर्णय की क्षमता को स्वायत्ता बढ़ाने के लिए किए गए उपायों की एक प्रक्रिया है ताकि वे जिम्मेदार तरीके से अपने हितों की सुरक्षा कर सकें। मानव की क्षमताओं का विस्तार ही मानव सशक्तीकरण की अवधारणा का केन्द्रीय विन्दु है। क्षमताओं से आशय है कि लोग क्या कर सकते हैं, और वे क्या बन सकते हैं। ये दो ऐसे उपकरण हैं जिनसे जीवन का मूल्य निर्धारित होता है।
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