दलित साहित्य की शुरुआत सर्वप्रथम मराठी भाषा (महाराष्ट्र) में दिखाई देती है। दलित साहित्य के प्रेरणा स्रोत डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी है। सुशीला टाकभौरे जी का उपन्यास 'तुम्हें बदलना ही होगा' का विश्लेषण करके वर्तमान समय की समस्याओं को इस पुस्तक में बताने का प्रयास किया गया है। वर्तमान समय में दलित स्त्री अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। वह पुरुष के समान ही आर्थिक सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में समानता की मांग करने लगी है। इस पुस्तक के नायक धीरज और नायिका महिमा भारती दोनों ही अपने समाज को जागृत करते हुए दिखाई देते हैं। इस में अंबेडकरवादी चेतना का स्वर पूरी तरह से रचना में अंतर्निहित है। दलित समाज के वर्तमान समय के सभी बिंदुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश हुई है। इस में शिक्षा को काफी महत्व दिया गया है। यह पुस्तक भारतीय समाज के लिए परिवर्तन की दिशा में एक नया कदम है। यह समाज में समता स्वतंत्रता एवं बंधुता की बात करती है। वर्ण जाति संप्रदाय के भेदभाव को भूलकर सब एकता के साथ रहे। सामाजिक समानता और स्त्री पुरुष समानता की भावना के साथ नए समाज का निर्माण हो यही इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है। आशा करता हूं कि यह पुस्तक समाज में परिवर्तन लाने में अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होगी।
नाम : राहुल किशनराव माधनुरे
जन्म स्थल :
वडगाँव, मंडल तानूर, जिला (आदिलाबाद) निर्मल, राज्य तेलंगाना
शिक्षा : एम.ए. (हैदरावाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद) एम.फिल. (मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद)
पी.एच.डी. (उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद) उर्दू डिप्लोमा (मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद)
तेलंगाना - सेट, आंध्र प्रदेश - सेट उतीर्ण
भाषा ज्ञान : मराठी तेलुगू हिंदी एवं अंग्रेजी
प्रकाशित रचनाएं:
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में आलेख प्रकाशित ।
गतिविधियाँ : सामाजिक कार्य
संपर्क : 1-28, वडगाँव, मंडल तानूर, जिला निर्मल, राज्य तेलंगाना - 504102
मो.नं. 6305397692
दो शब्द
समाज और साहित्य का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। जो कुछ समाज में घटित होता है उसका प्रभाव साहित्य पर अवश्य पड़ता है। समकालीन हिंदी साहित्य में यदि हम दलित लेखिकाओं की बात करें तो सुशीला टाकभौरे का स्थान विशेष महत्व रखता है। उनका व्यक्त्वि प्रभाव कारी होते हुए भी दलित स्त्री चेतना को लेकर मुखर है। वर्तमान साहित्य में सुशीला टाकभौरे का उपन्यास 'तुम्हे बदलना होगा' दलित जीवन की वर्ण जाति भेद की समस्याओं को वर्तमान संदर्भों में गहराई से रेखांकित करता है। इस उपन्यास के नायक धीरज और नायिका महिमा दोनों ही दलित समाज को जागृति करने की ओर अग्रसर है यह उपन्यास समाज में समता एकता का निर्माण कैसे हो वर्ण जाति के भेदभाव को भूल कर सब ग्राहक तत्व भाव के साथ कैसे आगे बढ़ सकते हैं। मानवता कोही सच्चा धर्म माना जाए सामाजिक समानता और स्त्री पुरुष समानता की भावना के साथ नए समाज के निर्माण की बात को दिखाता है सामाजिक समानता की बात करते हुए यह उपन्यास दलित जाति की लड़की उच्च वर्ण के व्यक्ति के साथ विवाह करके उनके परिवार के साथ सम्मान पूर्ण क्षमता तथा स्वतंत्रता से कैसे जीवन जी सकती है अंतरजातीय विवाह को भी इस उपन्यास के माध्यम से बढ़ावा दिया गया है। वर्ण जाति भेद की समस्याओं को वर्तमान संदर्भों को जोड़कर लेखिका ने बखूबी प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। आवास की समस्या तथा शिक्षा की समस्या प्रदान की है। जैसे शहरों की दलित बस्तियों में सड़कों के किनारे भली-भांति देखा जा सकता हैं। उन्हें ढंग से दैनिक सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो पाती है।
भूमिका
भारतीय हिन्दू समाज व्यवस्था द्वारा निर्मित वर्ण व्यवस्था एवं जाति भेद के प्रतिरोध की उपज है दलित साहित्य। जब हम दलित साहित्य आन्दोलन की बात करते हैं तो भारतीय समाज व्यवस्था में दलित स्त्री लेखन प्रमुखता से मनु द्वारा निर्धारित नैतिकता ओर पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध करता हुआ दिखाई देता है। वर्तमान में डॉ. अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित होकर दलित स्त्री अपने आत्मसम्मान की बात कर रही है। वर्तमान समय में दलित स्त्री अपने अधिकारों के प्रति सचेत है तथा वह पुरुष के समान ही आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में समानता की मांग करने लगी है। शिक्षित दलित नारी बंधन मुक्ति की प्रबल भावना से सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने लगी हैं। साथ ही ग्रामीण महिलाएँ भी अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रही हैं और शैक्षिक क्षेत्र में पुरुषों के समान अपना योगदान दे रही हैं।
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