अक्षय छत में जाकर चारपाई में औंधा लेटा है। प्रीति को हर आहट की खबर हो जाती है। वह अम्माजी के पास पहुंच चुकी है। अक्षय को न पाकर इधर उधर ताँकझाँक करने लगती है तो अम्माजी कहती हैं कि अक्षय अभी छत में गया है, तू थोड़ी देर में आ जाना। वह अच्छा कहकर वापस जाने के लिए निकली पर कुछ सोचकर आधे रास्ते से घूमकर सीधे छत की सीढ़ियां चढ़ जाती है। छत पर पहुँच कर थोड़ी देर दरवाजे पर खड़ी खड़ी ही देखती रहती है। अक्षय चारपाई पर निश्चल पड़ा है, यह देखकर दबे पाँव उस तक पहुँचती है। थोड़ा इन्तजार कर, अक्षय के कान तक झुक कर धीरे से कहती है देखो कौन आया है। अक्षय अपने विचारों में डूबा, उसे बिना देखे जवाब देता है - जिस काम से आई हो वो करके चली जाओ।
होटल में वेटर ने बताया कि थोड़ी दूर पर ही एक प्राचीन मन्दिर है, उसकी बहुत मान्यता है। उसे देखने जानकी और अक्षय चल पड़े। आज पेपर जल्दी खत्म कर लिया सोफिया ने तो वह सीधे होटल आ गई। उसके दिमाग में यही चल रहा था कि माँ और अंकल कहीं बाहर घूम ही न रहे हों। रिसेप्शन से उसने चाभी के लिए पूछा तो उसे जवाब मिला कि ऊपर कमरा खुला है। वह तेजी से सीढियां चढ़कर ऊपर पहुँची। इससे पहले सोफिया अपने कमरे की घण्टी बजाती, दरवाजे के अपारदर्शी शीशे से अन्दर दो आकृतियां बहुत करीब-करीब, लगभग आलिंगनबद्ध सी नजर आ रही थी।
दिल्ली में जन्म और शिक्षा। बचपन में ही फुटबॉल से प्रेम और क्रिकेट से लगाव । स्नातकोत्तर तक की शिक्षा के बीच में ही जीवन यापन हेतु भारत सरकार के विभिन्न मन्त्रालयों से सम्बद्ध। गद्य व पद्य लेखन और अनुवाद में रुचि । रूसी और जापानी भाषा का अध्ययन। यूरोप के कुछ देशों और जापान में इच्छानुरूप वास । ई-मेलः meriabhivyaktiyan@gmail.com
गद्य लेखन का यह मेरा पहला प्रयास है। इसे लिखने की प्रेरणा सन् 1997 में मुझे मिली और अगले लगभग बीस वर्षों तक मेरे मानस में ही रही। पहले ही अध्याय में दर्शायी गई छवि तो बहुत पहले से ही मानस पटल पर थी, लगभग तव से जब में पहली बार परिवार के साथ पहाड़ में घूमने के लिए गया था। पहाड़ पर गया तो पहले भी था पर तब अनुभूतियों और स्मृति पर पकड़ कम रही होगी। जब मैं कक्षा सात में पढ़ता था तब पहली बार पहाड़ पर चढ़े, पहाड़ों से आत्मसात हुआ। वहां की नैसर्गिक सुन्दरता, वहां के लोगों का व्यवहार यहां तक कि हवा में फैली यहां की भीनी भीनी सुगन्ध, यह सब चीजें मन पर अमिट छाप छोड़ गई थी। उसके बाद भी कई बार पहाड़ पर आना जाना हुआ पर हर बार प्रकृति की गोद से कुछ न कुछ अनश्वर नया उपहार लेकर लौटा जो इस नश्वर तन में चिरस्थाई रहेगा। उन यादों को कागज पर उतारने का कोई उद्देश्य नहीं था। जब इस किताब को लिखने के उद्देश्य से बैठा तो वो सब स्मृति अंश धीरे-धीरे अपने आप लेखन में आ गए। मुख्य कहानी का कथानक मेरी कल्पना ही है। एक महत्त्वपूर्ण अनुभव और इक्का-दुक्का जगह पर ही स्मृति इस कथा में अनायास प्रवेश के लिए मेरे मानस पटल पर दस्तक दे रहे थे तो मैंने भी उसे बिना रोकटोक इस कथा में विराजने का निमन्त्रण दे ही दिया और यह शायद उचित ही था।
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