पुस्तक परिचय
ठाकुर गोपालशरण सिंह (जन्म 1 जनवरी 1891 ई., निधन 2 अक्तूबर 1960 ई.) आधुनिक हिन्दी काव्य के प्रमुख उन्नायकों और पथप्रशस्त करनेवाला में हैं । ब्रजभाषा के स्थान पर .आधुनिक हिन्दी का प्रयोग कर उन्होंने काव्य में न सिर्फ़ वही माधुर्य, सरसता और प्रांजलता वनाए रखी, जो ब्रजभाषा का वैशिप्ट्य था, वरन् उनकी प्रसाद अभिव्यंजना शैली में भी रमणीयता का सौन्दर्य बना रहा । विषय प्रतिपादन में तल्लीनता और भाव विचार की सघनता उनकी कविता का राक और आकर्षक तत्त्व है ।
गाँव, खेत खलिहान, किसान मज़दूर, नदी पहाड़, झरने, तालाब, बाग़ बग़ीचे, दूर दूर तक फैली हरीतिमा में पला बढ़ा कवि का जीवन परिवेश तो उसकी कविता में है ही अशिक्षा, अज्ञान, जात पाँत, छुआछूत, बाल विवाह, अनमेल विवाह, प्रेमरहित दांपत्य, नारी दुर्दशा और दलित वर्ग की निरीहता आदि सामाजिक विसंगतियों की करुणार्द्र अनुभूतियाँ भी वहाँ हैं । विदेशी पराधीनता के दुष्चक्र से उपजे दैन्य, ताप, शोषण .और संत्रास के चित्रों के अतिरिक्त समकालीन अंतर्राष्ट्रीय समस्या युद्ध .और शांति जैसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी कवि विचारणा के केन्द्र में है । कुल मिलाकर इतना विस्तृत काव्य फलक पाठक को जहाँ एक ओर सुखद आश्चर्य से भर देता है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक युग के मुद्दों से रू ब रू कराता है । पारिवारिक संबंधों की कोमलता को बचाए रखने और मानव जीवन को चरितार्थ करने का आग्रह रचती ठाकुर साहब की कविताएँ काव्य संस्कारों और काव्य सरोकारों का प्रकट साक्ष्य हैं, साथ ही उन्हें धरती का कवि होने का गौरव भी दिलाती हैं ।
लेखक परिचय
हिन्दी की आधुनिक काव्य धारा की संजीदगी से पड़ताल और उसका समय सापेक्ष मूल्यांकन करने के अभ्यस्त डी. सत्येन्द्र शर्मा (जन्म 1954 ईं. पन्ना, म.प्र.) की अन्य प्रकाशित कृतियाँ हैं नवगीत संवेदना और शिल्प कविता की आँच एवं व्यावहारिक हिन्दी सरंचना । संप्रति आप .अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय, रीवाँ के अन्तर्गत शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सतना के हिन्दी विभाग एवं शोध अध्ययन केन्द्र के आचार्य एवं अध्यक्ष हैं ।
बस, दो बातें!
बचपन में स्कूल की हिन्दी बाल भारती में संगृहीत गोंड़ों का नाच शीर्षक कविता मुझे अच्छी लगती थी । गाँव के एक मोहल्ले में बसे गोंड़ों से नित्य प्रति वास्ता पड़ता था । वे मेहनती होते हैं, और काम के सच्चे । जिस दिन वे हमारी खेती के काम पर न आते, हम लोग समझ जाते कि रात भर नाचे होंगे । माँ के कहने पर उन्हें बुलाने जाता तो उनके नृत्य करने के बाद हमारे अनुमान की पुष्टि हो जाती और मेरे भीतर वह कविता चलने लगती । बहुत दिनों बाद ध्यान गया कि वह रचना तो विन्ध्य अंचल के ही सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवि ठाकुर गोपालशरण सिंह ने लिखी है । बाद में हिन्दी साहित्य का इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की उन पर की गई संक्षिप्त किन्तु विशिष्ट टिप्पणी के कारण उनकी रचनाओं को पढ़ने और उससे अधिक उनकी जीवनी को लेकर जिज्ञासा हुई । उनके रचना संग्रहों को एकत्र कर पाने में तो मुश्किलें आई किन्तु रीवा के प्रतिष्ठित अधिवक्ता और कवि श्री सत्येन्द्र सिंह सेंगर से गंतव्य के कुछ सार्थक निशान मिले । उस मार्ग पर चलने पर गोंड़ों का नाच लिखनेवाले कवि की निजी जिन्दगी को जानने और बाद में उसके लिखे को समझने का अवसर मिला । जाने क्यों (क्या पता औरों को भी यह लत हो) अपनी भाव धारा में निमग्न कराती कोई रचना मुझे उसके रचनाकार की निजी जिन्दगी को जानने की बेचैनी सें भर देती है । यह लिखे हुए को लिखनेवाले की जिन्दगी में ढूँढने की कोशिश जैसा है, ठीक वैसे ही जैसे जन्म से गोंड़ों का नाच देखती आईं आँखों को जब गोंड़ों का नाच पढ़ने को मिला, तो देखे हुए और रचे हुए की संगति देखकर लगा कि साहित्य तो हमारी आसपास की दुनिया है । उस दुनिया को ठाकुर साहब की रचनाओं में देख पाना एक विरल और दिलचस्प अनुभव प्रख्यात कथाकार गिरिराज किशोर संबंधों में इतने आत्मीय, बड़प्पन से भरे और अनौपचारिक हैं कि उन्हें मेरी कृतज्ञता रास नहीं आएगी । इसलिए यह औपचारिकता ठीक नहीं जबकि वे इस विनिबंध लेखन के मूल में हैं । शब्द सत्ता को समाज में फलीभूत देखने का स्वप्न लिए मेरे पत्रकार बेटे हिमांशु बेटियाँ ऋचा एवं श्रुति पत्नी सुनीता जी, अनुज निरंजन और योग्य शिष्य अरविन्द शुक्ल तथा सुनील पांडे की मेरे इर्द गिर्द भौतिक या मानसिक उपस्थिति के बग़ैर यह विनिबंध लेखन मेरे लिए असंभव था । कंप्यूटर से काम करनेवाले सुरेन्द्र विश्वकर्मा भी इस मौके पर अकारण याद नहीं आ रहे हैं । शुभमस्तु!
अनुक्रम
1
रचनाकार का समय एक झलक
9
2
व्यक्ति परिचय जन्म, शिक्षा और परिवेश
12
3
काव्य प्रेरणा, प्रकृति और प्रक्रिया
19
4
काव्य रचनाओं का क्रमिक विकास
39
5
समय संदर्भ कवि और उसकी विचारणा
82
6
कवि का प्रदेय
106
7
परिशिष्ट एक
111
परिशिष्ट दो
112
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