भूमिका
भगिनी निवेदिता ने अपने Master as I saw him ताम ग्रंथ में एक स्थान पर लिखा है स्वामी विवेकानन्द के बिना रामकृष्ण संघ जिस प्रकार निरर्थक होता, उसी प्रकार रामकृष्ण संघ के उनके प्रातागण यदि उनके अनुगामी न होते तो विवेकानन्द का जीवन और कर्म भी असार्थक हो जाता। उन्होंने आगे लिखा है इन सभी जीवनों का अध्ययन करते समय अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि रामकृष्ण विवेकानन्द नामक एक आत्मा हमारे बीच आविर्भूत हुई थी, उस सत्ता की छायातले अनेक रूपों के दर्शन हमें होते हैं, जिनमे बहुत से अभी भी हमारे बीच है और इन लोगों में किसी के भी सम्बन्ध में पूरी सच्चाई के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि यहीं पर अन्य सभी लोगों के साथ विवेकानन्द की सम्बन्ध सीमा का अन्त है या यहीं से उनके अपने व्यक्तित्व सीमा का प्रारंभ है।
भगिनी निवेदिता के इस मुक्त दृष्टिकोण से ही हम श्रीरामकृष्ण लीला तत्व के माधुर्य का आस्वादन कर सकते है। श्रीरामकृष्ण को उनके जीवन और वाणी के माध्यम से जितना जाना जाता है, उससे सामग्रिक रूप में उन्हें समझा नहीं जा सकता। उन्हें हम स्वामी विवेकानन्द के जीवन एवं व्यक्तित्व के दिव्य प्रकाश में समझ पाते हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने अपने छोटे से जीवन में युगावतार के धर्म संस्थापन हेतु जिस कर्मयज्ञ की परिकल्पना की थी, सुदृढ़ आधार पर स्थापित होने पर भी उसके रूपायन के लिए आवश्यकता थी कुछ दिव्य जीवनों की। वस्तुत इन्हीं लोगों ने अपनी विराट आध्यात्मशक्ति एवं असीम प्रेम से अपने गुरु के संघ को धीरे धीरे गढ़ कर खड़ा किया।
स्वामी विवेकानन्द के देहावसान के बाद ही बहुतों के मन में रामकृष्ण संघ के भविष्य के विषय मे संदेह उठा था। अपने राजनैतिक कार्य कलापों के कारण भगिनी निवेदिता द्वारा रामकृष्ण संघ से सम्पर्क तोड़ लेने पर रामकृष्ण विवेकानन्द विरोधियों के मन एवं लेखन में हर्ष की गुनगुनाहट भी हुई थी कि अब रामकृष्ण संघ का ध्वंस अवश्यंभावी है।
परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वरन् श्रीरामकृष्ण संघ में वृद्धि हुई और होती ही जा रही है। इसका कारण यह था कि कई दिव्य जीवन स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व की छाया तले स्वचेतना में जागृत हो रहे थे। इन जीवनों के विषय में ही भगिनी निवेदिता ने पूर्वोक्त उद्धरण मे लिखा है । निवेदिता मे रामकृष्ण संघ के परिचालन की न तो योग्यता थी और न इच्छा। वे यह जानती थी। इसी से रामकृष्ण विवेकानन्द रूपी युग्म आत्मा के साथ जुड़े हुए रामकृष्ण संघ के भ्रातृवृन्द की बात उन्होंने की और कहा कि इनके न रहने पर स्वामी विवेकानन्द का जीवन और कर्म असार्थक हो जाता।
स्वामी विवेकानन्द के गुरुभ्राताओ का जीवन कर्मकेन्द्रित न होकर आध्यात्म केन्द्रित था। इसी से लोक चक्षु के अन्तराल मे रहकर ही वे रामकृष्ण संघ रूपी आध्यात्म महीरुह को अपने जीवन के आध्यात्मरस से परिपोषित करने में सफल हो सके थे। रामकृष्ण संघ एक समाज कल्याण परक प्रतिष्ठान नहीं है । अवतार पुरुष के मानव कल्याण साधन के यंत्र रूप में यह प्रतिष्ठित हुआ था। किन्तु यह कल्याण केवल मानव की आध्यात्म चेतना के सम्यक विकास से ही संभव है। और यह विकास उसके दैहिक, मानसिक एवं सामाजिक उन्नति के माध्यम से ही हो सकता है । खाली पेट से धर्म नही होता यह श्रीरामकृष्ण की दिव्य वाणी है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण संघ के जीवन प्रवाह को मानव जीवन की ऐहिक उन्नति की दिशा मे प्रवाहित कर दिया था। किन्तु यह भी बाह्य है । रामकृष्ण संघ की समस्त कर्म साधना के अन्तराल मे है मानव जीवन को आध्यात्मिक आदर्श की ओर परिचालित करना, जिसके फलस्वरूप युगावतार के आविर्भाव ने जिस नवीन युग का आरंभ किया था, वह अपनी पूर्णता के ऐश्वर्य में महिमामय हो उठे । स्वामी विवेकानन्द के असामयिक निधन के बाद उनके गुरुभाइयो ने उनके असमाप्त कार्य को पूर्ण करने के दायित्व को ग्रहण किया। स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित आठ प्रतिष्ठानों की तरह उन्होंने भी अनेक प्रतिष्ठानों की स्थापना की। परन्तु इस कर्म विस्तार के पीछे प्रचार साधन की अपेक्षा आध्यात्मशक्ति का प्रयोग ही मुख्य था। स्वामी विवेकानन्द के गुरुभ्राताओ का जीवन आध्यात्म शक्ति का आधार था। इसी के माध्यम से उन्होने संघ गठन के कार्य में आत्म नियोग किया था।
युगधर्म प्रवर्तन के लिए, प्राणों को अर्पित करने को प्रस्तुत इन गुरुभ्राताओं की संख्या थी पन्द्रह। इन सभी ने श्रीगुरु के धर्मोपदेश के प्रचार हेतु रामकृष्ण संघ की सेवा में प्राणोत्सर्ग किया था। इनके दिव्य जीवन की अपूर्व द्वति ने माग निर्देशन करते हुए रामकृष्ण संघ का परिचालन किया। परन्तु इन पन्द्रह महाजीवनों ने एक ही रूप में एक दूसरे के कमोंद्यम की पुनरावृत्ति नही की । रामकृष्ण संघ के परिचालन में इनमे प्रत्येक का एक निर्दिष्ट स्थान था और इन सभी ने अपने निर्दिष्ट स्थान एवं भाव से कार्य करके संघ का परिपोषण एवं परिवर्धन किया था।
इन पन्द्रह महामानवों में एक थे स्वामी ब्रह्मानन्द। भगवान श्रीरामकृष्ण अपने शिष्यो मे छह लोगों को ईश्वरकोटि के रूप में चिह्नित करते थे। जो इस श्रेणी के है, वे हैं जन्म से ही मुक्त दिव्य ज्ञान मे प्रतिष्ठित। स्वामी ब्रह्मानन्द श्रीगुरु द्वारा निर्दिष्ट इसी श्रेणी के थे। इसके अलावा भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी दिव्यदृष्टि से श्रीजगदम्बा द्वारा चिह्नित मानसपुत्र रूप मे इन्हें जाना था। आध्यात्म भूमि के उतुंग शिखर पर अधिष्ठित होते हुए भी उनकी सांसारिक बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण थी, यह श्रीरामकृष्ण जानते थे। तभी उन्होंने कहा था कि राखाल एक राज्य चला सकता है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द तथा अन्य गुरुभाई उन्हे राजा कहकर बुलाते थे। परवर्ती काल में स्वामी ब्रह्मानन्द को संघ के परिप्रेक्ष्य में जो दायित्व और भूमिका निभानी पड़ी थी, वह इस घटना में ही अन्तर्निहित है ।
स्वामी विवेकानन्द है युगपुरुष की वाणी के व्याख्याता एवं उद्राता। इस वाणी को किस प्रकार कर्म में रूपायित किया जाय, इसके लिये उन्होंने रामकृष्ण संघ की प्रतिस्थापना भी की। किन्तु स्वामी विवेकानन्द का जीवन था स्वल्पकालिक। रामकृष्ण संघ के जिस बीज का रोपण उन्होंने किया, उससे उदात तरु को शैशवावस्था मे छोड्कर ही उन्होंने देहत्याग किया। शिशु तरु के पालन पोषण का दायित्व उनके गुरुभाइयों पर विशेषकर स्वामी ब्रह्मानन्द पर पड़ा।
स्वामी विवेकानन्द के देहत्याग के पश्चात स्वामी ब्रह्मानन्द रामकृष्ण संघ के नेता निर्वाचित हुए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि बड़े वृक्ष के नीचे छोटे वृक्ष बढ़ नहीं पाते । इसीलिए उन्हें हट जाना होगा। देहांत के माध्यम से उन्होंने अपने को हटा लिया। दायित्व आ पड़ा गुरुभ्राताओं पर। उनका व्यक्तित्व निखर उठा विशेषकर स्वामी ब्रह्मानन्द का। स्वामी विवेकानन्द की तरह दिव्य द्युतिमय भास्वर व्यक्तित्व उनका नही था। किन्तु उनके जीवन की दिव्य चेतना के उतुंग शिखर से जो आध्यात्म मंदाकिनी प्रवाहित हुई, उसने संघ के सभी स्तरो को अभिसिंचित कर उसे एक महान सार्थकता के पथ पर अग्रसर कर दिया। जो लोग नवीन संघ मे शामिल हो रहे थे, उनके जीवन गठन, मठ की नवीन शाखाओ के स्थापन एवं परिचालन व्यवस्था, नवीन भक्त मण्डली मे रामकृष्ण भाव के संचारण आदि सभी ओर उनकी तीक्ष्ण दृष्टि थी। इसी प्रकार धीरे धीरे उनकी परिचालना में रामकृष्ण संघ शाखाओं प्रशाखाओ में सुदृढ़ भित्ति पर सारे विश्व मे विस्तारित होने मे समर्थ हुआ था।
यह दिव्य महाजीवन हम सभी के लिए अध्ययन योग्य है । परन्तु कठिनाई यह है कि यह जीवन केवल बहिर्जीवन की घटनावलियों के उल्लेख द्वारा ही सम्यक रूप में उपलब्ध नही हो सकता। इस जीवन का अधिकांश ऐन्द्रिक भूमि से ऊपर अधिमानस क्षेत्र में विस्तारित है। महाकवि भवभूति ने कहा है न प्रभातरलं
ज्योतिरुदेति वसुधातलात् प्रभातरल ज्योति पृथ्वी से उत्थित नही होती। इसीलिए स्वामी ब्रह्मानन्द का जीवन मूलत ध्यानगम्य है । फिर भी मानव जीवन में जो कर्म एवं भाव प्रकाशित हुए हैं, उनको जानना आवश्यक है । उनका अवलंबन करके ही उनका ध्यान संभव है । इसी से स्वामी ब्रह्मानन्द के एक पूर्णाग जीवन चरित की आवश्यकता थी ।
स्वामी प्रभानन्द ने बहुत परिश्रम एवं शोध से इस तरह के एक जीवन चरित की रचना की है। इस ग्रंथ को उद्बोधन कार्यालय ने प्रकाशित करके बंग भाषा भाषी रामकृष्णानुरागियों एवं जनसाधारण का बड़ा उपकार किया है । यह ग्रंथ स्वामी ब्रह्मानन्द के एक प्रामाणिक जीवन चरित रूप में परिगणित होगा।
अनुक्रमणिका
1
श्रीरामकृष्ण के मानसपुत्र
2
श्रीरामकृष्ण के सान्निध्य में
30
3
दिव्य उत्तराधिकार
72
4
लोकहिताय
112
5
लोकनायक
168
6
सद्गुरु
220
7
वर्णवैचित्र्यमय व्यक्तित्व
249
8
कल्मी की बेल में
296
9
स्व स्वरूप में स्थिति
341
10
घटनालहरी
361
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