भारतीय चिन्तनधारा में धर्म शब्द की व्याख्या बड़ी ही जटिल रही है। अनादि काल से बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ता, विद्वान्, एवं साधु महात्मा धर्म के गम्भीर एवं गहन ज्ञान को मानव समाज के सामने सरलतम ढंग से उपस्थित करने में प्रयत्नशील रहे। किन्तु जैसे-जैसे मानव समाज विकास के उच्चतम शिखर पर बढ़ता गया वैसे-वैसे वह धर्म के वास्तविक स्वरूप से अपने आपको दूर करता गया और आधुनिक सभ्यता के रंग में रंगे लोग तो धर्म को कोरा बकवास एवं विभिन्न मतभेदों का कारण समझ कर उससे अपने आपको अछूता रखने में ही गौरव समझते हैं, परन्तु जिस धर्म के ऊपर सम्पूर्ण सृष्टि अवस्थित है, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पहाड़, नदियां एवं नाना वनस्पतियों का रंग-रूप निर्यामत है, क्या हम उसे अपने से अलग कर सकते हैं किन्तु प्राचीन चिन्तकों की यह कमजोरी रही है कि उन्होंने धर्म के वास्तविक एवं व्यावहारिक रूप से जन-वर्ग को परिचित नहीं कराया, किन्तु बुद्धि वैलक्षण्य एवं तर्कवाद के ऊपर आधारित विचारों को ही धर्म का नाम देकर अपने-अपने ढंग से व्याख्या करनी शुरू कर दी। फल यह हुआ कि जिस धर्म का आश्रय लेकर हम अपने-आपको जागतिक प्रपंचों से छुटकारा पाने में समर्थ होकर शान्ति की ओर बढ़ते, उसे मिथ्या अभिमान और बाह्याडम्बर के मनमोहनी लिबास में लपेट मानव को टुकड़े-टुकड़े में बाट दिया और हम विज्ञानवादी बन बैठे। क्या कभी हमने सोचा कि वह कौन-सा धर्म है जिसके लिए भगवान श्रीकृष्णचन्द्र अर्जुन से वार्तालाप के क्रम में कहते हैं "यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्।" वह कौन-सा धर्म है जिसका अभाव होने पर भगवान को अवतार लेना पड़ता है? वह कौन-सी वस्तु है जिसे धारण करना आवश्यक है?" "यः धारयति स धर्म", जिसके लिये शास्त्र ने कहा। आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के महान् तत्त्व को समझने के लिये मानव जीवन से बढ़कर कोई स्वर्णिम समय मिलेगा ही नहीं। उपर्युक्त भावों से प्रेरित होकर ही मैंने १९५३ ई० के हंसादेश में "धर्म-सम्मेलन" और "धर्मराज की कहानी" शीर्षक पर एक गम्भीर लेख लिखा था और उस समय के सभी विचारकों ने उसे सराहा था। तब से अब तक उस महत्वपूर्ण लेख की मांग पुस्तक के रूप में सभी लोगों ने की किन्तु समयाभाव एवं अस्वस्थता के कारण यह कार्य सम्भव नहीं हो सका। परन्तु परम आदरणीय गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से यह कार्य अब सम्पन्न हो गया और अब एक पुस्तक के रूप में "धर्म-सम्मेलन" और "धर्मराज की कहानी" प्रस्तुत है। इसमें बड़ी सुन्दर और सरल भाषा में विभिन्न धर्माचार्यों के विचारों को प्रस्तुत कर, वास्तविक धर्म की व्याख्या की गई है। यदि पाठक ने दत्तचित्त होकर पुस्तक का अध्ययन किया तो मैं अपना परिश्रम सफल समझेंगा। विशेष गुरु कृपा।
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