शुद्धाद्वैत मत प्रवर्तक श्रीमदाचार्यचरणों को गगन में सूर्य की भांति भला कौन नहीं जानता, जिनके प्रभाव से प्रभावित सूरदास, परमानन्ददास आदि अष्टसखाओं ने अपनी सुदिव्य वाणी द्वारा भव्य पदावली की रचना कर समस्त हिन्दी साहित्य क्षेत्र को जीवन्त रखा है। आप दक्षिण देश अन्तर्गत "कांकर गाँव" के सुदिव्य तैलङ्ग कुल तिलक "लक्ष्मण भट्ट" जी के पुत्र हैं। आपकी माता "इलम्मागारू" थीं। चम्पारण्य में शमीवृक्ष के नीचे लगभग ४० हाथ के गोल अग्नि प्रवाह में से आप प्रथम माताजी को गोद में प्राप्त हुए। तत्पश्चात् जातकर्म एवं यज्ञोपवीत कराने के बाद अल्प काल में ही समस्त वेद वेदाङ्ग और निखिल शास्त्रों का सर्वांगीण अध्ययन कर अपने पिता तथा गुरु को पूर्ण विश्वस्त कर दिया जिससे उन्हें निश्चित ज्ञान हुआ कि आप पूर्ण परमात्मा है। पिताजी के देहावसान होंने पर आपने समस्त पृथ्वी की निरावरण चरण (नंगे पांव) एवं एक मात्र धोती और उत्तरीय (दुपट्टा) से ही लगभग १२ वर्ष की अवस्था में क्रमशः सात्विक, राजस व तामस तीन प्रकार के दैवी जीवों के उद्धारार्थ लगभग २० वर्ष में समस्त पृथ्वी की ३ परिक्रमा कर अपनी दिव्य दयालुता का सहृदय भावुक भक्तों के हृदय में दर्शन कराया। आपके द्वारा ही वैष्णव धर्म की विजय हुई। आपने कुछ ऐसे असाधारण कार्य किये हैं जो अन्य आचार्यों द्वारा न हो सके थे। श्रीनाथजी का प्राकट्य आपके लिये ही हुआ। आपकी भाव-भरी सेवा के द्वारा श्रीनाथजी भी अपने श्रीविग्रह में से प्रकट हो, जनसाधारण की तरह डोलने व बोलने लगे; केवल आचार्यचरणों के साथ ही नहीं, प्रत्युत तत्कालीन सभी सेवकों के साथ। वैष्णवों को यहाँ यह सिद्धान्त बता देने की आवश्यकता है, कि पुष्टिमार्गीय भगवान् के दो स्वरूप होते सर्वोद्धारक वह श्रीविग्रह होता है जो मर्यादा में मूर्तिरूप से कहा जाता है। जो अपने सेवकों के लिये स्वयं श्रीमदाचार्यचरण अपने हस्तकमल द्वारा अपने हृदय का संस्पर्श कराके अपने सेवकों को कल्याणार्थ सेवा करने के लिये उनके मस्तक पर विराजमान करते है, और कहते हैं-"यह मेरी सर्वस्व है, सो याकी सावधानी सी सेवा करियो, चूक न पड़े, ऐसौ ध्यान रखियो"।
दूसरा स्वरूप भक्तोद्धारक है जो सेवक की भावमयी सेवा से प्रसन्न होकर अपने विग्रह में से पृथक् मनुष्याकृति में प्रकट होकर सेवक को विविध प्रकार से सुखदान देता है। ये सब प्रकार "अदेयदानदक्षच" इस सर्वोत्तमजी के नाम से ध्वनित होता है।
आचार्य श्रीवल्लभ ने चौरासी ग्रन्थों की रचना की है ऐसा कहा जाता है। आपकी चौरासी (८४) बैठक है, चौरासी (८४) ही आपके निर्गुण सेवक हैं और आपने निर्गुण भक्तिमार्ग को ही प्रकट किया है, जिसको प्रेम, आसक्ति और व्यसन- इन तीन रूपों में विभक्त किया जाता है। आपकी महिमा गरिमा को भला जीव कहाँ तक वर्णन कर सकता है। रसमय निकुञ्ज लीलाओं का जो प्रिया-प्रियतम की नित्य- केलि है उसका वैष्णवों द्वारा आस्वाद लेना ही आपकी अपूर्व देंन है, जिसको पुष्टिमार्ग में रसमयवार्ता एवं रहस्यलीला के नाम से कहा जाता है। आपने निर्गुण, सात्विक, राजस व तामस - ४ प्रकार के ग्रन्थों की रचना की है। उदाहरणार्थ- निर्गुण में षोडश ग्रन्य। सात्विक कोटि में "श्रीसुबोधिनीजी" जो श्रीमद्भागवतजी का भाष्य है। वह टीका के रूप में प्रथम, द्वितीय, तृतीय व दशम स्कन्ध के ऊपर तो है ही साथ ही एकादश स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय के कुछ श्लोकोंतक भी उपलब्ध होती है। शेष श्रीमद्भागवतजी के स्कन्धों पर यह सुबोधिनी जी नहीं है।
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