इस सृष्टि के अंदर मानव सृष्टिकर्ता की सर्वोत्तम कृति माना जाता है। जड़ और चेतन दोनों के संयोग से उसका निर्माण हुआ है। जड़ भौतिक तत्त्वों से निर्मित उसके शरीर की रग-रग में एक चेतना प्रवाहित है जो उसे सजीव बनाये हुए है। उसके सारे कार्यकलाप उसी चेतना के द्वारा संचालित एवं उसी पर आधारित हैं।
अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव के अंदर चेतना का विकास सर्वाधिक हुआ है, किन्तु विकास की वह प्रक्रिया पूर्ण नहीं हुई है। हां, उसके अंदर इसकी क्षमता एवं सामर्थ्य विद्यमान है कि वह चाहे तो इस प्रक्रिया को पूर्ण कर चेतना के सर्वोच्च स्तर तक अपने को ले जा सकता है। इसके लिए अंतर की गहराइयों में उतर कर उस चेतन सत्ता का बोध प्राप्त करने की आवश्यकता पड़ती है। जब तक हम उसे जानते नहीं, उसका साक्षात्कार नहीं कर लेते, तब तक स्वाभाविक है कि बाह्यजगत् के जंजालों में ही उलझे रहें और उन्हें ही सब कुछ समझ यत्र-तत्र उन्हीं में परिष्कार एवं परिहार कर मानव जीवन को सुखी बनाने की चेष्टा करते रहें। किन्तु बाह्य स्तर पर मानव के आचार-व्यवहार आदि में चाहे जितना परिवर्तन ले आया जाय, बड़ी-से-बड़ी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक या कैसी भी क्रान्ति क्यों न घटित हो जाय, व्यक्ति का अंतर जब तक नहीं बदलता, मानव समाज की समस्यायें वैसी-की-वैसी ही बनी रहती हैं। यह आज प्रत्यक्ष देखने में आ रहा है, इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।
अस्तु, किसी भी प्रकार की चिरस्थायी एवं समाधानकारक क्रान्ति मानव-चेतना में आमूलाग्र परिवर्तन होने पर ही आ सकती है। विश्व का अधिकतर मानव-समाज आज भी धर्म पर आस्था रखता है और सभी धर्मों का मूल है अध्यात्म- अर्थात् व्यक्ति के अंदर स्थित उस चेतन सत्ता की खोज एवं उसके साथ तादात्म्य। यह सभी विज्ञानों से बड़ा विज्ञान है। आध्यात्मिक क्रान्ति का सम्बन्ध व्यक्ति की उसी मूल चेतना में क्रान्ति अथवा परिवर्तन लाने से है। इस प्रकार की क्रान्ति अंतर में घटित होने पर बाय-जगत् में परिवर्तन एक तरह से स्वतः आने लगता है, उसके लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।
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