श्री बगलामुखी दश महाविद्याओं में से एक हैं। इनकी उपासना या साधना दक्षिण व उत्तर दोनों ही आम्ना पद्धति से की जाती है। यही एक ऐसी देवी हैं जो वाम व दक्षिण मार्ग के साधकों द्वारा आराधित हैं। इनके भैरव आनंद भैरव व गणेश हरिद्रा गणेश हैं। इनके शिव एकमुखी महारुद्र हैं तथा रात्रि वीररात्रि है। इनकी साधना में वीर व दिव्य दोनों ही भावों की प्रधानता है।
अथर्वासूत्र रूप शक्ति वल्गामुखी कहलाती है, वल्गा वैदिक नाम है। यही वैदिक वल्गा नाम आगम अर्थात तंत्र में बगला कहलाता है। इसलिए वल्गामुखी या बगलामुखी में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही हैं। प्रायः साधकजन नाम के फेर से भ्रमित होते भी देखे गए हैं।
बगलामुखी को श्रीविद्या, ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। इनकी सर्वप्रथम आराधना भगवान विष्णु ने की थी। ये शत्रु का दमन करनेवाली व साधक का हित साधनेवाली महाशक्ति हैं। अतः साधकों को इनकी साधना द्वेषवश कभी नहीं करनी चाहिए। इतना भी बता देना आवश्यक है कि इनकी साधना गुरु के सान्निध्य में और उनके निर्देशानुसार ही करनी चाहिए, अन्यथा अनर्थ भी हो सकता है।
महाशक्ति बगलामुखी शीघ्र फलदायिनी हैं। बगलामुखी तंत्र में इनके ध्यान का स्पष्टीकरण करते हुए इस प्रकार बतलाया गया है-
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं,
वामेन शत्रून् परिपीडयंतीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन,
पीतांबराढ्यां द्विभुजां नमामि ।।
साधको। अध्यात्म का क्षेत्र एक अपार सागर है, जिसका कोई छोर दूर-दूर तक दृष्टिगत नहीं होता। एकमात्र गुरुदेव ही ऐसी विभूति हैं, जो इस आध्यात्मिक सागर से हाथ पकड़कर सुरक्षित रूप से मानव को उसके लक्ष्य तक ले जाने की सामर्थ्य रखते हैं। क्षेत्र कोई भी हो, जब तक योग्य मार्गदर्शक नहीं होता है तब तक मानव मात्र तिनके की तरह इधर-उधर डूबता उतराता रहता है। कभी वह संसाररूपी वायु चक्र के चक्रवात में चकराता है तो कभी सिन्धु-भंवर में।
क्षेत्र विज्ञान का हो अथवा ज्ञान का, बिना योग्य मार्गदर्शन के कोई छोर दृष्टिगत नहीं होता। फिर साधना का क्षेत्र तो इतना विशाल है कि इसका पार गुरु- कृपा के अभाव में प्राप्त करना निस्संदेह सम्भव ही नहीं है। गुरु कृपा प्राप्त होने पर इष्ट कृपा स्वयं प्राप्त होने लगती है। गुरु की श्रेणी इसीलिए कोटि-कोटि विद्वानों ने ईश्वर से भी ऊपर रखी है।
यदि आप साधना के पवित्र क्षेत्र में पदार्पण करना चाहते हैं और सफल होना चाहते हैं तो सबसे पहले ऐसे योग्य और अनुभवी गुरु का वरण करें जो आपका सही मार्गदर्शन कर सकें। साधक को सीधे ही यंत्र प्रयोग या अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। अपने गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना उनका पहला और आवश्यक कर्तव्य है। उनके श्रीचरणों में बैठकर ही साधक को ध्वन्यात्मक ज्ञान व मंत्र का मही उच्चारण करते हुए साधना क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए।
मुझे विश्वास है कि साधक इन दो शब्दों को ही बहुत अधिक मानते हुए इस ग्रन्थ में प्रस्तुत की गई पूजा-पद्धति व निर्देशों का अनुकरण करते हुए और श्री गुरु-चरण रज ललाट पर धार्य करते हुए श्री बगलामुखी के सान्निध्य व असीम कृपा से स्वयं को ओत-प्रोत करते हुए साधना मार्ग में सफलता की उच्चता का वरण करेंगे। साधक, गृहस्थ व योगीराज यदि प्रस्तुत पुस्तक में प्रदत्त विषयों का परिशीलन व अनुकरण करते हुए माँ पराम्बा पीताम्बरा के कृपा पात्र बन सकें, तो मैं स्वयं को अपने किए गए प्रयास में सफल समझेंगा।
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