मेरी कल्पना, अधिकांशतया, पर्वत, नदी, जंगल, झरने आदि प्रकृति के सौन्दर्य के निकट बसे हुये गांवों और उनमें निवास करने वाले सरल-हृदय स्त्री, पुरुष और बच्चों तक सीमित रहती है। अपने जीवन का अधिकांश भाग अर्थात् प्रायः 35 वर्ष, और वह भी युवावस्था का, दिल्ली-महानगरी में व्यतीत करने के पश्चात् भी, सम्भवतया मुझे इस महानगरी और इसके निवासियों के प्रति मोह नहीं हो पाया। इस महानगरी में निवास करने वालों के जीवन-संघर्ष की कठोरता और उससे उत्पन्न कटुता के परिणामस्वरूप हमारी संस्कृति में जो परिवर्तन हो रहे हैं वह, सम्भवतया, मुझे रास नहीं आये और मैं अपने बचपन के निवास-स्थान, दून घाटी और उस समय के संघर्ष रहित सरल जीवन की ओर मुड़कर देखने लगी। अब दून-घाटी भी यह नहीं रही और वहां का जीवन भी उतना सरल नहीं रह गया। परन्तु बचपन का देखा हुआ प्राकृतिक सौन्दर्य और व्यतीत हुआ सरल जीवन सर्वदा मेरे आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बना रहा है। कदाचित् वही सब कुछ मेरी रचनाओं में स्वतः आ जाता है, अथवा यों कहिये कि मैं अपनी रचनाओं के माध्यम से उस प्राकृतिक सौन्दर्य और अपनी भारतीय संस्कृति के जीवन की सरल मान्यताओं को जीवित रखने का प्रयत्न करती हूं। इसी कारण मुझे प्रेम, ममता, त्याग, वात्सल्य आदि से भरे पात्र अधिक सुहाते हैं और अच्छाई की बुराई पर विजय अच्छी लगती है, यद्यपि आधुनिक जीवन इनसे काफी उल्टा-पुल्टा हो गया। इस रचना में भी "श्वेता" को मुख्य पात्र बनाकर मैंने यही प्रयत्न किया है। मैं कहां तक सफल हो सकी हूं यह पाठक-गण ही निश्चित कर सकते हैं।
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