श्रीधाम वृन्दावन रसिकोंकी राजधानी, आराध्य और आश्रय है। इस वृन्दावनकी पावन भूमिपर नवनवायमान प्रेमभक्तिरसकी धारा सतत प्रवाहित होती रहती है, जिसमें मधुररतिरसमयी भक्तिका उत्कर्ष परिलक्षित होता है। ऐसी भक्तिमें निमग्न श्रीरूप-सनातन, श्रीहरिदासस्वामी, श्रीहरिवंशजी आदि अनेक रसिक आचार्योंके द्वारा यह भूमि सुशोभित हुई है, जिनमें श्रीहरिरामव्यासजी अन्यतम हैं। इन आचायर्योका साहित्य प्रबुद्ध दर्शन, चिन्मय-भक्तिरसके सिद्धान्त और स्वनिष्ठागत उपासनाके विधि-विधानसे ओत-प्रोत हैं। ब्रजभाषामें रचना करनेवाले इन आचार्योंके साहित्योंमें रसिक-अनन्य श्रीहरिरामव्यासजीका साहित्य विस्तार, विषय-वस्तु आदिकी दृष्टिसे बहुत विशिष्ट स्थान रखता है।
आपने अपनी वाणीमें प्रिया-प्रियतमकी अलौकिक श्रृंगाररसमयी लीलाओंका मुखर गायन किया है, जिसमें अपूर्व प्रेमका तत्त्व और इसके प्रापक प्रेमभक्तिका सिद्धान्त सन्निहित है। स्वामी हरिदासजी तथा श्रीहरिवंशजी भी आपके सजातीय और समवयस्क रसिक-अनन्य थे, इसलिए आप रसिकोंमें अपरिमित सख्यमय प्रेम व सद्भाव था। इन सबने मिलकर जिस रसका आस्वादन किया है, वह इनलोगोंकी वाणियोंमें यत्किञ्चित् अभिव्यक्त हुआ है। वृन्दावनीय निकुंजरसोपासनामें आपलोग हरित्रयीकी छापसे प्रसिद्ध हुए।
श्रीहरिवंशजी तथा श्रीहरिदासजीकी प्रशंसा करते हुए व्यासजीने लिखा है- श्रीहरिवंश से रसिक हरिदास से अनन्यनि की, को वपुरा अब करि सकै सारी । जिन वृन्दावन साँचो जान्यो, कर राधावल्लभ, कुंजबिहारी ।।
श्रीहरिरामव्यासजीका जन्म संवत् १५६७ मार्गशीर्ष, कृष्णा पंचमीको तत्कालीन बुन्देलखण्डकी राजधानी ओरछामें हुआ। इनके पिता श्रीसुमोखन शुक्ल बुन्देलखण्डके राजगुरु होनेके साथ माध्वसम्प्रदायकी उत्तरभारतीयशाखाके आद्य- आचार्य श्रीमाधवेन्द्रपुरीके प्रशिष्य श्रीमाधवदासजीके शिष्य होनेके कारण उच्च कोटिके रसिक-अनन्य भक्त भी थे। उन्होंने हरिरामको कम आयुमें ही अपने श्रीगुरुदेव श्रीमाधवदासजीसे पञ्चसंस्कार प्रदान कराया। उस समय श्रीहरिरामव्यासजीकी आयुका परिचय इनकी वाणीसे प्राप्त होता है-श्रीमाधवदास-सरन में आयो। हों अजान ज्यों नारद ध्रुव सौं, कृपा करी संदेह भगायौ ।। इसके द्वारा श्रीध्रुवजीके समान इनकी आयु और नारदजीसे मन्त्रप्राप्तिके समान श्रीमाधवदासजीसे मन्त्र प्राप्ति अभिव्यञ्जित होती है।
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