प्राक्कथन
पंडित गोपीनाथ कविराज इस युग के अलौकिक प्रतिभाशाली मनीषी थे। उनका अध्ययन जितना विस्तृत था, उतनी उनकी मेधा-शक्ति प्रबल थी। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे अध्ययन करते रहे और अपनी ज्ञान राशियाँ जिज्ञासुओं में वितरण करते रहे।
अपनी शान पिपासा को शान्त कराने के लिए उनके निकट बड़े-बड़े योगी, महापुरुष, साधक, ज्ञानी, विद्वान से लेकर सामान्य जन तक आते थे। वेद, वेदान्त, सांख्य, उपनिषद्, दर्शन, अध्यात्म, योग, पुराण आदि ग्रंथों का उद्धरण देकर वे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त करते थे। योगियों को पातंजल योग, गोरखपंथी योग, बौद्धों का हीनयानी, महायानी योग, पाशुपत योग, शैव योग, तांत्रिक योग के बारे में कहा करते थे और साधारण जन को गुरु के महत्व की व्याख्या करते हुए कहते थे- ''अचर का मतलब अचित्, चर का मतलब चित् एवं विष्णु का मतलब परमेश्वर या ईश्वर एवं तत्पद का अर्थ ब्रह्मस्वरूप है। श्रीगुरु इन चारों तत्त्वों से उच्त्तर तत्व हैं ।'' 'नास्ति तत्त्व गुरो: परम' इस प्रसिद्ध वाक्य में भी गुरुभाव की श्रेष्ठता सूचित करती है।
परम श्रद्धेय कविराजजी का यह ग्रंथ उनके अन्य ग्रंथों से भिन्न है। वस्तुत: इस ग्रंथ में जिज्ञासुओं द्वारा पूछे गये महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर व्याख्या के साथ दिये गये हैं। अन्य ग्रंथों में प्रतिपाद्य विषयों पर व्यापक रूप से चर्चा है, फिर भी जिज्ञासुओं के मन में अपनी निजी जिज्ञासाएँ रहती हैं, उनका निरसन कविराज ने पत्रों के माध्यम से तथा मौखिक रूप से किया है। इस संकलन में उन्हीं पत्रों तथा उत्तरों का संग्रह किया गया है । जिन लोगों को उनके निकट बैठकर इन प्रवचनों को सुनने का अवसर मिला है, उन्हें उसका आस्वाद मिला है और वे तृप्त हुए हैं।
इस संकलन में श्रद्धेय कविराजजी ने नादानुसंधान के सम्बन्ध में जैसी चर्चा की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इसी प्रकार जप-विज्ञान, गुरुशक्ति, चित्शक्ति, चिदाकाश, समाधि आदि विभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट किये हैं तो ब्रह्मदर्शन, आत्मदर्शन, भगवत् दर्शन की व्याख्या की है।
कविराजजी की प्रतिभा पर विस्मय इसलिए होता है कि तंत्र, अध्यात्म, योग दर्शन के एक विद्वान ने विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के काव्य ग्रंथ की जिस ढंग से आलोचना की है, वह अद्भुत है।
रवीन्द्र-साहित्य के आलोचकों की कमी नहीं है, 'वलाका' ग्रंथ में कवि की कैसी भावना थी और किस दृष्टि से इसकी रचना हुई है, इसका सर्वप्रथम उद्घाटन श्रद्धेय कविराज ने किया है । लेख के प्रारंभ में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है, जैसी शैली है, वह अनेक साहित्यकारों की कलम से प्रकट नहीं होती। साहित्य की यह छटा केवल रवि बाबू की रचनाओं में दिखाई देती है। यद्यपि कविराजजी ने अन्त में इस आलोचना को अध्यात्म का रूप दिया है, फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रचना अपूर्व है।
इस ग्रंथ के प्रकाशन में सर्वापेक्षा उत्साही आदरणीय श्री जगदीश्वर पाल हैं जिनकी सहायता के बिना यह संकलन तैयार न होता। इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं । मुझे विश्वास है अध्यात्म, तंत्र, योग, समाधि, विभूति आदि के बारे में जिन लोगों को उत्सुकता रहती है, उन्हें इस ग्रंथ से सहायता प्राप्त होगी।
विषय-सूची
1
नाद
2
नाद-विन्दु
5
3
नाद-ध्वनि (१)
9
4
नाद-ध्वनि (२)
10
महानाद
14
6
काल और क्षण
16
7
जप (१)
20
8
जप (२)
22
जप-रहस्य (१)
24
जप-रहस्य (२)
27
11
कृत्रिम-अकृत्रिम वैन्दव देह
29
12
त्याग और भोग
31
13
परमतत्त्व की अनुभूति
33
भगवत्-प्राप्ति
37
15
प्रकृति-धर्म
38
हृदयाकाश
41
17
ब्रह्मभाव
43
18
ब्रह्म-दर्शन
45
19
पुरुषोत्तम भाव
47
भाव
48
21
भोग्य वस्तु
51
शब्द ब्रह्म
54
23
नित्यलीला
59
मानस-वृन्दावन
60
25
काल तत्त्व
61
26
चिदाकाश
62
परमपद
66
28
कर्त्ता और कर्म
67
आत्मदर्शन
68
30
चार प्रश्नों के उत्तर
71
चित्शक्ति
73
32
सद्गुरु
74
गुरु-महात्म्य
75
34
विन्दु-र्शन का रहस्य
77
35
साधना
80
36
विन्दु
पूर्णमिदं
81
द्रष्टा-रूप
84
39
86
40
चैतन्यावस्था
88
विरह
91
42
पराशक्ति
92
चित्तशुद्धि
99
44
आत्मज्ञान
100
प्रकाश और ज्योति
103
46
स्तम्भवृत्ति
105
वाच्य और वाचक
108
कर्मकाण्ड
110
49
सविकल्प-निर्विकल्प
111
50
आत्मोन्नति
112
जन्म-जन्मान्तर
52
अमर देह
116
53
जीवोद्धार
118
प्रेम
122
55
संभोगकाय
123
56
सात प्रश्नों के उत्तर
124
57
योगी की परीक्षा
126
58
इष्टदेवी के रूप
136
ज्ञान और अज्ञान
138
समाधि
141
अध्यात्म का विकास
145
गायत्री
147
63
तीन जन्मों का विचार
150
64
आत्मा का पूर्ण जागरण और उसकी परिणति
152
65
आध्यात्मिक उत्कर्ष का क्रम-विकास
164
जीव का आविर्भाव और पूर्णत्व लाभ-एक दृष्टि
167
मानस-पूजा
180
रवीन्द्रनाथ की वलाका
188
69
सनातन-साधना की गुप्तधारा
198
70
फुटकर
201