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परमहंस योगानन्द के वचनामृत: Sayings of Paramahansa Yogananda

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Item Code: HAF512
Author: Paramahansa Yogananda
Publisher: Yogoda Satsanga Society Of India
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788189535544
Pages: 136
Cover: PAPERBACK
Other Details 8x5 inch
Weight 134 gm
Book Description
लेखक परिचय

जगद्वंद्य महान गुरु श्री श्री परमहंस योगानन्द ने, जिनका शिष्य समुदाय मानवजाति के सभी वर्ण-वर्गों में फैला हुआ है, और जिनकी इस जगत में उपस्थिति ने अगणित लोगों के लिये ईश्वर-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त कर दिया, उच्चतम सत्यों को ही अपना जीवन बनाया और उन्हीं की शिक्षा दी। परमहंस योगानन्द जी का जन्म 1893 में गोरखपुर में हुआ था। 1920 में उन्हें उनके गुरु ने अमेरिका में हो रहे उदारवादियों के विश्व धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। सम्मेलन के पश्चात् बोस्टन, न्यू यॉर्क, फिलाडेल्फिया में दिये गये उनके व्याख्यानों का अत्यंत उत्साह के साथ भव्य स्वागत हुआ, और 1924 में उन्होंने सम्पूर्ण अमेरिका में दौरा करते हुए व्याख्यान दिये।

अगले दशक में परमहंस जी ने व्यापक यात्राएँ की जिनमें उन्होंने अपने व्याख्यानों और कक्षाओं के दौरान हज़ारों नर-नारियों को ध्यान के यौगिक विज्ञान एवं संतुलित आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा प्रदान की।

परमहंस योगानन्दजी द्वारा प्रारम्भ किया गया आध्यात्मिक एवं मानवतावादी कार्य वर्तमान में, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप के अध्यक्ष, स्वामी चिदानन्द गिरि के मार्गदर्शन में चल रहा है। परमहंस योगानन्द जी की रचनाएँ, उनके व्याख्यान, कक्षाएँ, अनौपचारिक भाषण इत्यादि का प्रकाशन करने के साथ-साथ (जिसमें क्रिया योग ध्यान पर विस्तृत पाठमाला शामिल है), यह सोसाइटी योगदा सत्संग / सेल्फ़-रियलाइजेशन मंदिरों, आश्रमों एवं ध्यान केन्द्रों की देखभाल करती है जो सारे विश्व में फैले हुए हैं। इसके अलावा यह संन्यास प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं विश्व प्रार्थना मंडल का भी संचालन करती है जो आवश्यकताग्रस्तों की दैवी सहायता तथा सारे विश्व के लिये सामंजस्य एवं शांति के माध्यम का कार्य करती है।

क्विंसी हौवे, ज्यूनियर, पी.एच.डी., पुरातत्व भाषाओं के प्रोफेसर, स्क्रिप्स कॉलेज, ने लिखा है: "परमहंस योगानन्द जी पश्चिम में केवल भारत का ईश्वर-साक्षात्कार का चिरन्तन आश्वासन ही नहीं लाये, अपितु एक व्यावहारिक पद्धति भी लाये जिसका अनुसरण करके जीवन के सभी क्षेत्रों में कार्यरत आध्यात्मिक अभिलाषी उस लक्ष्य की ओर तेजी से अग्रसर हो सकते हैं। भारत की यह आध्यात्मिक विरासत जो पश्चिम में पहले अति गूढ़ एवं जटिल समझी जाती थी, अब उन सबकी पहुँच में अभ्यास एवं अनुभूति के रूप में आ गयी है जो ईश्वर को जानने की अभिलाषा रखते हैं, परलोक में नहीं, अपितु यहाँ और अभी ... ।

प्रस्तावना

श्री श्री परमहंस योगानन्द जी, गुरुवर्य; जिनके वचनामृत इस पुस्तक में सप्रेम संकलित किए गए हैं, एक जगद्‌गुरु थे। सभी धर्म-ग्रन्थों की सारभूत एकता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम को आध्यात्मिक ज्ञान के अटूट सूत्र में बाँधने की चेष्टा की। अपने जीवन तथा लेखन द्वारा उन्होंने अनगिनत हृदयों में प्रभु-प्रेम की दिव्य चिनगारी जलाई। उन्होंने अपना जीवन धर्म के उच्चतम सिद्धान्तों के अनुसार निर्भीकता से बिताया और घोषणा की कि परमपिता के सभी भक्त, चाहे किसी भी मत के हों, उन्हें समान रूप से प्रिय हैं।

महाविद्यालय की शिक्षा तथा भारतवर्ष में अनेक वर्षों तक अपने गुरु, स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी के कठोर अनुशासन में आध्यात्मिक शिक्षा पाकर परमहंस योगानन्दजी पश्चिम में धर्मोपदेश करने के लिये तत्पर हुए। 1920 में वे भारतीय प्रतिनिधि के रूप में धार्मिक उदारवादियों की सभा (Congress of Religious Liberals) में बोस्टन पहुँचे तथा 30 वर्ष से अधिक (1935-36 में अपनी भारत यात्रा को छोड़कर) अमेरिका में ही रहे।

मनुष्यों में ईश्वर से लौ लगाने की प्रेरणा को जागृत करने की चेष्टाओं में उन्हें अद्भुत सफलता मिली। संसार के सैंकड़ों नगरों में उनकी योग* कक्षाओं में भीड़ ने सभी रिकार्ड तोड़ दिये तथा स्वयं उन्होंने एक लाख भक्तों को क्रियायोग की दीक्षा दी।

जो भक्त संन्यास पथ पर चलने की इच्छा रखते हैं उन के लिये गुरुजी ने दक्षिणी कैलीफोर्निया में अनेक सेल्फ़-रियलाइज़ेशन आश्रम केन्द्रों की नींव रखी। वहाँ अनेक सत्यान्वेषी स्वाध्याय तथा सेवाकार्य करते हैं एवं मन को शान्त करने वाले, आत्मज्ञान को जागृत करने वाले, ध्यान सम्बन्धी अभ्यासों में व्यस्त रहते हैं।

गुरुदेव के अमेरीका प्रवास के दौरान निम्नलिखित घटना से स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों से उन्हें कितना प्रेमपूर्ण स्वागत मिलता था।

अमेरीका के विभिन्न भागों में घूमते हुए परमहंस योगानन्द जी एक दिन एक ईसाई मठ को देखने के लिये रुके। वहाँ के मठवासी उनके काले रंग; लम्बे काले केश तथा स्वामीओं की परम्परागत वेशभूषा - गेरुए वस्त्र को देखकर उनसे कुछ सशंकित भाव से मिले। वे उन्हें मूर्तिपूजक समझकर मठाधिपति से मिलने से रोकने ही वाले थे, कि मठाधिपति स्वयं उस कमरे में आ पहुँचे। खुशी से हँसते हुए तथा खुली बाँहों से उन्होंने पास आकर परमहंसजी का आलिंगन किया और हर्षोल्लास से बोले- "परम भागवत ! मैं प्रसन्न हूँ कि आप आ गए हैं।"

यह पुस्तक, मानव के विषय में सहानुभूतिपूर्ण समझ एवं असीम ईश्वर-प्रेम से झलकते गुरुजी के बहुमुखी स्वभाव की अनेक व्यक्तिगत झाकियाँ प्रस्तुत करती है।

1917 में परमहंस योगानन्द जी द्वारा संस्थापित 'योगदा सत्संग सोसाइटी' उनके वचनामृत के इस संग्रह को हिंदी पाठकों के सामने रखते हुए प्रसन्नता का अनुभव करती है।

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