संस्कृत को विश्व की सबसे प्राचीनतम भाषा माना गया है, संस्कृत साहित्य सागर की तरह व्यापक है, किसी भी भाषा का आंकलन उसमें विद्यमान साहित्य के आधार पर किया जा सकता है। ' संस्कृतिः संस्कृताश्रिता' वास्तव में किसी भी देश की संस्कृति में भाषा का अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है। यदि हम संस्कृत भाषा के साहित्य पर विचार करें तो यही स्पष्ट होता है कि इसका इतिहास सागर की तरह अथाह और व्यापक है। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी रही है। संस्कृत साहित्य की प्राचीनता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि सृष्टि की उत्पत्ति का विधान भी संस्कृत परम्परा में मिलता है पुरूष सूक, नासदीय सूक्त तथा हिरण्यगर्भ सूक्त इस बात का प्रमाण है।
वैदिक काल से लेकर लौकिक संस्कृत परम्परा तक विभिन्न संस्कृत मनीषियों ने संस्कृत भाषा के पठन-पाठन एवं संवर्धन के लिए सतत् प्रयास किया है। देश का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां तक संस्कृत भाषा का आधिपत्य न रहा हो, तात्पर्य स्पष्ट है कि हर क्षेत्र ने संस्कृत अनुरागियों को जन्म दिया है, कश्मीर से कन्याकुमारी तक संस्कृत की एक सुदीर्घ परम्परा के दर्शन होते हैं। वैदिक संस्कृत साहित्य के अंतर्गत जहां चारों वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, वेदाङ्ग तथा सूत्र साहित्य आता है तो लौकिक संस्कृत परम्परा रामायण से प्रारंभ होकर वर्तमान समय तक निर्बाध गति से आगे बढ़ रही है।
वाल्मीकि से जो लेखन परम्परा प्रारंभ होती है वह, भास, शुद्रक, भवभूति, भारवि और बाणभट्ट जैसे संस्कृत महाकवियों से होती हुई वर्तमान काल तक निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर है। भारतवर्ष के हर क्षेत्र से संस्कृत के मूर्धन्य रचनाकारों ने अपनी लेखनी से संस्कृत परम्परा को समृद्ध किया है।
केन्द्र और राज्य सरकारों ने भी संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए हैं, विभिन्न संस्कृत संस्थानों की स्थापना करना इसी क्रम को विस्तार देना है। समय की गति निरंतर अपने पथ पर अग्रसर रहती है, अतः प्रत्येक काल में महत्वपूर्ण तथ्यों को सहेजना हम सब का दायित्व होता है।
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