सखाराम बाइन्डर
श्रीमती सरोजिनी वर्मा द्वारा मराठी के वर्चस्वी नाटककार श्री विजय तेंडुलकरकी अत्यंत विवादास्पदा और बहुचर्चित कृति `सखाराम बाइन्डर' का सशक्त और प्राणवान अनुवाद, जिसने रंगमंच पर दाम्पत्य जीवन की गोपनीय नैतिकता का साहसपूर्ण ढंग से पर्दाफाश किया है। सरकारी नियंत्रण को चुनौती देकर उच्चतम न्यायालय से लखकीय अभिव्यिक्त के आधार पर मान्यता पाने वाला अपने ढंग का का अकेला और अनूठा नाटक है।
'सखाराम बाइन्डर' को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि वह गलाजत से भरी दिखावटी संभ्रान्तता को पहली बार इतने सक्षम ढंग से चुनौती देता है। रटे-रटाये मूल्यों को सखाराम ही नहीं इस नाटक के सारे पात्र अपनी पात्रता की खोज में ध्वस्त करते चले जाते हैं। जिन नकली मूल्यों को हम अपने ऊपर आडम्बर की तरह थोप कर चिकने-चुपड़े बने रहना चाहते हैं, उसक सही -सही इन आइने में निर्ममता से उघड़ता हुआ देखते हैं। `सखाराम बाइन्डर' वही आइना है।
भाषा के स्तर पर सारे बड़ी खुली और ऐसी बाजरूपन से सुयुक्त भाषा का प्रयोग करते हैं। जिन्हें हमने अकेले-दुकेले कभी सुना जरूर होगा। किन्तु उसे अपने संस्कारिता का अंश मानने में सदैव कतराते रहे हैं। पूरे नाटक में कथावस्तु की विलक्षणता न होते हुए भी पात्रों का आपसी संयोजन भाषा के जिस पर नाटककार ने किया है, वही नाटकीयता को उभारने में अद्भुत रूप् से सफल हुआ।
जीवन परिचय
विजय तेंडुलकर
जन्म : 7 जनवरी, 1928
गतिविधियाँ : मराठी के आधुनिक नाटककारों में शीर्षस्थ विजय तेंडुलकर अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित एक महत्त्वपूर्ण नाटककार हैं । 5० से अधिक नाटकों के रचयिता तेंडुलकर ने अपने कथ्य और शिल्प की नवीनता से निर्देशकों और दर्शकों, दोनों को बराबर आकर्षित किया । पूरे देश में उनके नाटकों के अनुवाद एवं मंचन हो चुके हैं । हिन्दी में उनके 3० से अधिक नाटक खेले जा चुके हैं ।
साहित्य सेवा : ' खामोश, अदालत जारी है', ' घासीराम कोतवाल', 'सखाराम बाइन्डर',' जाति ही पूछो साधु की' और ' गिद्ध ' आदि बहुचर्चित-बहुमंचित नाटकों के अलावा उनकी प्रमुख नाट्य रचनाएँ हैं : ' अजी', ' अमीर', ' कन्यादान', ' कमला', ' चार दिन',' नया आदमी', 'बेबी', ' मीता की कहानी', ' राजा माँगे पसीना', 'सफर', ' नया आदमी',' हत्तेरी किस्मत', ' आह ', ' दंभदूपी', ' पंछी ऐसे आते हैं', 'काग विद्यालय', 'कागजी कारतूस', ' नोटिस', ' पटेल की बेटी का ब्याह', 'पसीना-पसीना', ' महंगासुर का वध',' मैं जीता मैं हारा', ' कुत्ते', ' श्रीमंत', आदि |
आखिर क्यों?
आखिर 'सखाराम बाइंडर, पर इतना होहल्ला क्यों? महाराष्ट्र सरकार के सेन्सर ने इस नाटक पर प्रतिबन्ध लगाया; मुकदमेबाजी हुई-शोर मचा-फिर कोर्ट से प्रतिबन्ध हटाने का आदेश हुआ; सम्भ्रान्त आभिजात्य वर्ग ने पहले नाक- भौं सिकोड़ी फिर इस नाटक के दर्जनों प्रदर्शनों में अपने लिए सीटें बुक करायीं; अखबारों ने इसके पक्ष- विपक्ष दोनों तरफ टिप्पणियाँ जड़ी; न्यस्त स्वार्थो ने नाटककार पर कीचड़ उछाला और उनके साथ 'समाज के नैतिक ठीकेदारों' ने शारीरिक हिंसा करने का दुःसाहस किया |
आखिर यह सब क्यों?
सम्भवत: इसीलिए कि रंगमंच के माध्यम से नाटककार विजय तेंडुलकर ने 'सखाराम बाइंडर को इस तरह निर्मित किया कि वह गलाजत से भरी दिखावटी सम्भ्रान्तता को पहली बार इतने सक्षम ढंग से चुनौती देती है । रटे-रटाये मूल्यों को सखाराम ही नहीं इस नाटक के सारे पात्र अश्वनी पात्रता की खोज में ध्वस्त करते चले जाते हैं । जिन नकली मूल्यों को हम अपने ऊपर आडम्बर की तरह थोपकर चिकने-चुपड़े बने रहना चाहते है; उसे सही-सही इस आईने में निर्ममता से उघड़ता हुआ देखते हैं । सखाराम बाइंडर वही आईना है ।
प्रचलित जौवन कै मूल्यों कौ चुनौती देना अब तक केवल डडआदमियों का कार्य माना जाता था । सखाराम बाइंडर कोई बड़ा आदमी नहींहै । वह तो एक अत्यन्त साधारण प्राणी है किन्तु उसकी सामाजिकता या उसकी अपनी निजता जिस प्रकार नैतिकता की स्वीकृत मान्यताओं पर प्रश्न-चिह्न लगा देती है, वह अभूतपूर्व है । उसके जीवन के मूल्य तेंडुलकर
के अनुसार-उसी के जीवन- आचरण से निःसृत होते हैं । वह कोई भी बाहरी मूल्य स्वीकार करने को तैयार नहीं है । यह भी सहज सम्भव है कि सखाराम अपने मुक्त यौनाचार को अपने जिन कंधों पर उठाकर चलना चाहता है सम्भवतः सक्षम रूप से उस भार को ढोने के लिए उसके कन्धे उतने मजबूत न दीखें! किन्तु उसके भीतर का एक आत्मविश्वास जिसके द्वारा वह अपने सही-गलत आचारण से सारे प्रतिमानों को लेकर खड़ा होता है-मैं समझती हूँ कि 'करनी' का इतना साहस भी आज के 'बकवासी कथनी युग' में अत्यन्त दुर्लभ है । सखाराम का महत्त्व इसी दृष्टि से है । जिन्दगी जैसी है उसे उसी ही रूप में सहज स्वीकार करके चलनाऔर. उस पर अपने ही आचरण की निजी मुहर लगा देना चाहे उससे अन्तत: एक निरर्थकता की ही उपलब्धि हाथ आये-समस्त सखारामों की नियति है ।
नाटक का ऐसा खुलापन खेलनेवालों के लिए जितनी बड़ी चुनौती है, उससे कम देखनेवालों के लिए नहीं । भाषा के स्तर पर सारे पात्र बड़ी खुली और ऐसी बाजारूपन से संयुक्त भाषा का प्रयोग करते हैं जिन्हें हमने अकेले-दुकेले कभी सुना जरूर होगा । किन्तु उसे अपनी संस्कारिता का अंश मानने में सदैव कतराते रहे हैं । पूरे नाटक में कथावस्तु की विलक्षणता न होते हुए भी पात्रों का आपसी संयोजन भाषा के जिस स्तर पर नाटककार ने किया है, वही नाटकीयता को उभारने में अद्भुत रूप से सफल हुआ । प्रमाणस्वरूप बम्बई और दिल्ली-जैसे नगरों में इस नाटक के अनेकानेक ' प्रदर्शन हुए जिन्होंने प्रबुद्ध दर्शकवर्ग को मन्त्रमुग्ध रखा ।
मुझे जब यह नाटक बम्बई से श्री सत्यदेव दुबे ने अनुवाद करने के लिए भेजा तो मेरे सामने भारी धर्म-संकट उपस्थित हुआ । मराठी वाङ्मय । का बहुत-सा अनुवाद कर चुकी हूँ। तेंडुलकर के कई नाटक भी अनूदित । कर चुकी थी किन्तु यह नाटक मेरी अपनी उत्तर प्रदेशीय-संस्कारित के लिए सचमुच ही एक धर्म-संकट पैदा करता है । जैसा मैंने कहा है भाषा के-स्तर पर नाटक अभिनेता, निर्देशक और दर्शक के लिए तो चुनौती है ही-सबसे अधिक तो अनुवादक के लिए है । मराठी की इतनी बाजारू जनभाषा-से परिचित होने के लिए उस वर्ग का सहज सम्पर्क चाहिए था । उसे हिन्दी में उतारने के लिए भी उसी दुःसाहस की अनिवार्यता थी । नाटक मेरे लिए हर तरह से चुनौती था । पहले हिम्मत छोड़ दी थी किन्तु नाटक देखनेवालों के उत्साह को देखकर मुझे अपनी उस 'तथाकथित संस्कारिता को तिलांजलि देकर- (कहूँ कि बेहया होकर) इस नाटक के साथ सर्जनात्मक स्तर पर जूझना पड़ा ।
भाषा का चयन करते समय मैंने कई बातों का ध्यान रखा है । मूल मराठी में नाटककार को अपनी भाषा के साथ खेलने का जो सहज अधिकार प्राप्त है, वह तो मुझे हिन्दी में प्राप्त नहीं है और, जितना है भी उसका मैं पूरी तरह से उपयोग नहीं कर सकी । मुझे पात्रों की भाषा की ऐसी बनावट रखनी पड़ी जो हिन्दी होते हुए भी केवल हिन्दी प्रदेश के दर्शकों तक ही नहीं वरन् हिन्दी के माध्यम से दूसरी भाषाओं के रसग्रहण करनेवाले पंजाब, बंगाल, गुजरात और तमिलनाडु में बसनेवाले नाव्य- प्रेमियों तक के लिए सहज ग्राह्य हो । कुछ आलोचकों ने इस नाटक की प्रस्तुति की चर्चाओं में इसकी भाषा पर संस्कारग्रस्त होने का जो आरोप लगाया है, वह किसी अर्थ में शायद सही भी हो । इस नाटक के आलेख में मै एक विशिष्ट क्षेत्र को ध्यान में रखकर भाषा को सहज ही ऐसा बना सकती थी जो हिन्दी क्षेत्र की लोकभाषाओं की समृद्धि से जुड़कर दूसरा रंग पैदा कर सकती थी । किन्तु वह ' भोजपुरी फिल्मों' की तरह एक ऐसी आंचलिकता उत्पन्न करती जो दूसरे प्रदेश के दर्शकों के इस बोध पर प्रतिरोध ही लगाती । फिर भी मैंने भाषा में अब दुबारा बहुत से ऐसे परिवर्तन कर दिये हैं जो उनके लोकरंग को उभारने में सहायक होंगे । वैसे अलग- अलग प्रदेशों में यह नाटक खेलनेवालों से मेरा अनुरोध है कि वे नाटक के पात्रों की बोलियों में यदि क्षेत्रीय पुट का प्रयोग स्वत: कर लेंगे तो नाटक में अधिक आनन्द आयेगा ।
इस नाटक को मंच पर देखकर ही इसका सम्पूर्ण रस ग्रहण किया जा सकेगा । पात्र सखाराम बाइन्डर को नाटककार तेंडुलकर ने कहीं से ज्यों- का-त्यों उठा लिया था । यह उनकी प्रामाणिकता की कसौटी न भी हो तो आप उससे सीधे-सीधे साक्षात्कार करें और उसके अपने जीवन-दर्शन को समझें । इसके लिए आपको कोई बाहरी लेबुल लगाने की जरूरत न पड़े मेरा बस यही आग्रह है ।
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