नये संस्करण की भूमिका
आधुनिक युग में मानव की महत्वाकांक्षाओं ने नित नये आविष्कारों के माध्यम से संसार के अनेक गढ़ रहस्यों पर विजय प्राप्त कर एक तरफ बौद्धिक विलास को सन्तुष्टि के शिखर पर पहुँचाया है, वहीं दूसरी तरफ व्यक्ति के जीवन को सुख सुविधा सम्पन्न बनाकर भोगों के प्रति उसकी आसक्तियों को और प्रज्जलित किया है । परिणामस्वरूप व्यक्ति का जीवन भौतिकता की चरम पराकाष्ठा को पाकर भी शान्ति और सन्तुष्टि से दूर होता जा रहा है । नित नयी-नयी समस्याएँ मानव को अपनी चपेट में लेती जा रही है, जिसका परिणाम निरन्तर होते चारित्रिक हास एवं मनोविकारों में देखा जा सकता है। ये व्यक्ति की चेतना को पंगु बनाकर दुष्कर्मो द्वारा सामाजिक हित व्यर्क्तिगत हित को तो चोट पहुँचा ही रहे है साथ ही देश की प्राचीन गरिमामयी संस्कृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं ।
इसका सीधा कारण है, व्यक्ति का अपने आप से दूर होकर आत्मा की आवाज को अनसुना कर, स्वयं को मात्र शारीरिक स्तर पर महसूस कर बुद्धि और मन को सन्तुष्टि देना । क्या यही रही है हमारी प्राचीन गरिमामयी संस्कृति? इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो आज भी दिव्य आर्य संस्कृति योग, साधना, त्याग, तप के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करती हुयी दिखायी देती है । वेद, पुराणों का युग आज भी हमारे अन्दर छिपी दिव्य शक्ति से हमारा परिचय कराता प्रतीत होता है।
योग, साधना, तप, संयम इन भावों को जिन महान संतों ने अपने माध्यम से चारितार्थ ही नहीं किया; बल्कि दर्शन को एक नयी दिशा भी दी उन सन्यासियों में अग्रणी रामकृष्ण परमहंस देव थे। उनके पश्चात् यह श्रृखंला स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण, श्री अरविन्द, स्वामी रामानन्द के माध्यम से निरन्तर भारतीय संस्कृति को सम्मानित करती रही है, साथ ही भारतीय दर्शन को दिव्य अनुभूति परक दर्शन का बाना पहनाकर संसार में अग्रणीं स्थान प्रदान करती रही है।
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो पुन: हमारा देश विपत्ति के भंवर में फंसा इन्हीं योगियों की ओर देख रहा है। इन्हीं योगियों की जीवन दृष्टि, इनके विचार ही मृत प्राय हो रही भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवन मदान कर सकते हैं। हम भूल चुके हैं हमारे देश की मिट्टी में, जलवायु में अभी भी योग और साधना की शक्ति है। जिसके प्रति जागरूक होकर व्यक्ति अपनी चेतना को जागृत कर सकता है। भ्रम पूर्ण आसक्तियों पर, मन पर, शरीर पर अंकुश लगाकर जीवन के शाश्वत आनन्द की ओर अग्रसर हो सकता है। यह पुस्तक उन सभी दुर्लभ विचारों को प्रस्तुत करने की चेष्टा करती है जो व्यक्ति को दिशा प्रदान कर सकते है। इन योगियों की विशिष्टता यही है कि योग साधना एवं संन्यास का रास्ता अपनाकर भी इन्होंने निरन्तर मानव जाति के बीच रहकर बडी सरलता से, व्यक्ति की आत्म चेतना को जगाने का प्रयास किया है। 'ज्ञानी पण्डित में विवेक वैराग्य नहीं है। ईश्वरीय ज्ञान के दंभ के बावजूद व्यक्ति शत प्रतिशत संसारी है'। 'गिद्ध बहुत ऊँचे उड़ रहा है परन्तु उसकी नज़र नीचे मुर्दों पर लगी है। अत्यन्त सामान्य स्तर पर रहकर सरल भाषा में जनमानस को भक्ति का रास्ता दिखाकर उसके अर्न्तमन में ज्ञान का प्रादुर्भाव जिस तरह इन संतों ने किया है वह अवर्णनीय है। न कोई छोटा है न बड़ा। न कोई नीच है न कोई ऊँच। न कोई अमीर है न गरीब। वेदपाठी बाह्मण भी, जरूरी नहीं है ईश्वर के अस्तित्व को अपने मानस पटल में स्थित किए हुए हो। तथाकथित नीच व्यक्ति अपने कमी में लिप्त होते हुए भी अधिक जागृत हो सकता है । सामाजिक व्यवस्थाएँ तो अपनी सुविधा के लिए हमारे द्वारा ही बनायी गयी है। ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है और निरन्तर अपनी उपस्थिति का आभास हमें करा रहा है। व्यक्ति की आँखों से सांसारिक मृगमरीचिका का परदा हटते ही सहज रूप से उसके निर्मल मन में ईश्वर का आभास होता है। वैराग्य इसकी प्रथम सीढ़ी है। वैराग्य का अर्थ संसार से भागना नहीं है। वरन् अपने अर्न्तमन को सांसारिक-लोभ, मोह-माया से मुक्त करके चेतना को निर्मल विस्तार देना है। साथ ही निर्मूल, शुष्क विवेकहीन बौद्धिक ज्ञान से सम्बद्ध अभिमान का भी परित्याग करना है।
बड़े-बड़े दार्शनिक ज्ञाता विचार के माध्यम से परमसत् को उसकी सम्पूर्णता में जानने का दावा करते है । परन्तु क्या विचार अपनी सीमितता का अतिक्रमण किये बिना उस तक पहुँच सकता है? ईश्वर और उसकी सृष्टि के प्रति पूर्ण समर्पण ही चेतना को वह धरातल प्रदान कर सकता है, जहाँ सन्त मानव जाति को ले जाना चाहते थे। स्पष्टत: यह रास्ता है योग और भक्ति का। योग व्यक्ति को संयम का पाठ पढ़ाकर उसके अन्दर की दिव्यदृष्टि का विस्तार कर, शारीरिक स्तर से हटाकर आत्मतत्त्व से उसका परिचय कराता है । भक्ति, समर्पण का, प्रेम का भाव विकसित करके उसके चित्त को शिशुवत् निर्मलता प्रदान करती है। यही भाव इन सन्तों के चरित्र में देखने को मिलता है। शिशु सा सरल निर्मल मन लिए रामकृष्ण देव छोटी-छोटी कहानियों द्वारा जनमानस को उद्वेलित कर भारतीय दर्शन का महान पाठ पढ़ा गये। नरेन-नरेन कर प्रेम में विभोर हो संसार को विवेकानन्द जैसा अग्रणी युगपुरुष दे गये।
रामकृष्ण धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं धर्म की यथार्थता उसकी आन्तरिकता में है; उस भावना में है जिससे हम ईश्वर से जुड़कर जीवन में कार्य करते है, पूजा और अर्चना के बाह्य आडम्बरों में नहीं है । आन्तरिकता की दृष्टि से सभी धर्म एक जैसे है, 'इष्ट' व्यक्ति में भेद है। इष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण ही व्यक्ति को विश्व में व्याप्त सत के प्रति समर्पण भाव प्रदान करता है । यह दृष्टि सहज ही समस्त सीमितताओं को पार करा देती है ।
धर्म के प्रति यही समन्वयकारी बोध विवेकानन्द के दर्शन में चरितार्थ होता है । विवेकानन्द का जन्म लोक-कल्याणार्थ ही हुआ था । उनकी इन्हीं सम्भावनाओं को रामकृष्ण परमहंस ने पहचान कर अभिव्यक्ति प्रदान की। विवेकानन्द ने 'शिकागो' की 'पार्लियामेण्ट ऑफ रिलिजन' में धर्म और हिन्दू धर्म की अभूतपूर्व व्याख्या कर सभी दर्शनों की तुलना में भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता स्थापत की। साथ ही धर्म की समन्वयकारिता सिद्ध की । स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के अन्तरंग सत्यों को उदघाटित करते हुए भारत के चिन्तन को उजागर किया और सभी धर्मो के अन्तरंग लक्ष्य की एकता को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि अब वह सभी के चिन्तन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। उनका कहना था कि जिस प्रकार शहर के सभी रास्ते एक ही नदी तक पहुँचाने के अन्तत: साधन हो जाते हैं-चाहे वे किसी ओर से आते हों; इसी प्रकार सभी धर्म अन्तत: उसी एक दिशा की ओर बढ़ते है, जिसे जीवन के अन्तिम सत्य के रूप में वे सभी स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करते है । उन्होंने भारत की अनुभूति प्रधान क्षमता योग को दर्शन के लिए केन्द्रीय मानते हुए धर्म और दर्शन की एकता को प्रस्तुत किया। जिस गर्जना के साथ योग साधना के सार्वभौम महत्व को उन्होंने विश्व के सम्मुख रखा, उसकी गज हमेशा दार्शनिक विचारों के साथ-साथ सामान्य जन-मानस के विचारों में परिलक्षित होती रहेगी।
स्वामी रामतीर्थ ने भारतीय सस्कृति की सवोंत्कृष्टता को पहचानते हुए अपनी पूरी आस्था आर्य संस्कृति के प्रति व्यक्त की । भारतीय समाज में फैली हुयी विकृतियों पर आघात करते हुए उन्होंने जाति-पाँति, ऊंच-नीच के भेदभाव को भारतीय संस्कृति के सात्विक मूल रूप के लिए घातक बताया है । आर्य संस्कृति-भारतीय संस्कृति ही केवल इस बात पर बल देती है कि देश, समाज एवं उसकी सीमाएँ व्यक्ति द्वारा ही बनायी गयी हैं । वास्तव में हर मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिरूप है। आवश्यकता तो मात्र उसे पहचानने की है। इस सात्विक दृष्टि का विस्तार होते ही सारी सकीर्णताएँ अपने आप ही तिरोहित हो जाती है। वेदान्त दर्शन का यह सत्य ही सार्वभौम सत्य है मैं भी ईश्वर हूँ तुम भी ईश्वर हो, आत्मिक स्तर पर सब एक है। यह शरीर तो मात्र एक यन्त्र है जिसे प्रकृति ने रचा है। चेतना को न पहचान कर शरीर को प्रश्रय देना ही अज्ञान है-दुःखों की जड है। स्वामी रामतीर्थ भारतीय संस्कृति को भावी विश्व संस्कृति के रूप में देखते थे। उनकी इस परिकल्पना को हम इस परिप्रेक्ष्य में देख सकते है कि भौतिक युग से त्रस्त पाश्चात्य देश भी आज योग-साधना के महत्व को पहचानते हुए उसकी ओर अभिमुख हो रहे हैं । इसके साथ ही स्वामी रामतीर्थ ने पाश्चात्य दर्शन की सापेक्षिक सत्यता को एकांगी सिद्ध करते हुए भारतीय दर्शन की अनुभूतिपरक पूर्ण यौगिक दृष्टि की महत्ता सिद्ध की है । कोरा बौद्धिक चिन्तन सत्य को उसके पूर्ण यौगिक रूप में नहीं प्राप्त कर सकता है इसके लिए उसे भारतीयों की अनुभूतिपरक योग दृष्टि का अनुसरण करना पड़ेगा।
महर्षि रमण भी योग दृष्टि का विस्तार कर 'पूर्णम' के रूप में चेतना के अनुभवातीत रूप को अहं केन्द्रित चेतना का आधार मानते हैं। जगत का अविर्भाव, उसका प्रत्यक्षीकरण एवं उसका तिरोभाव सब कुछ हमारी भेद बुद्धि का परिणाम है सम्पूर्ण भेद-दृष्टि का अतिक्रमण होते ही सत्य 'समग्रता' में 'पूर्णम' के रूप में उद्भासित होता है। भेद दृष्टि द्वारा उसे जानने का प्रयास उसे विभिन्न नामों एवं विविध रूपों में उद्घाटित करता है। अहं-बुद्धि, भेद-बुद्धि का पूर्ण विलय होते ही चेतना निर्विरोध अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। यही सहज बोध ज्ञान की स्थिति है। यही शाश्वत आनन्द है।
महर्षि रमण आनन्द के निर्मल स्वरूप को परिभाषित करते हुए बड़े ही सशक्त ढंग से व्यक्ति को आत्मचिन्तन की ओर खींचते है । आनन्द क्या है' यह कोई उपलब्धि नहीं यह तो आत्मा का शाश्वत स्वभाव है । विश्व की किसी भी वस्तु में आनन्द का वास नहीं है। हम भ्रमित हो ऐसा सोचते हैं । आनन्द का चिरतन स्रोत तो भीतर है-अपने में ही है परन्तु यह भी उद्भासित होता है जब हम अन्तरमुखी हो स्वयं को पहचान लें, अपने आत्म-तत्व में अवस्थित हो जाए।
विवेकानन्द के पश्चात् श्री अरविन्द एवं उनके समकालीन स्वामी रामानन्दजी ने भी जन-मानस के हृदय के अन्धकार को दूर करने का प्रयास अपने अपने स्तर पर किया। श्री अरविन्द ने भारत के राष्ट्रीय जीवन पर अपनी छाप छोड़ते हुए वेद की प्रामाणिकता को सिद्ध किया है । वे 'सत्य' सम्बन्धी दयानन्द की अन्तर्दृष्टि की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए कहते हैं 'वेद में वह सभी मौजूद है जिसका अनुसंधान आज का वैज्ञानिक कर रहा है। बल्कि वेद संस्कृति अभी भी उन सत्यों को अपने आप में समाए हुए है जिन तक पहुँचना वैज्ञानिक दृष्टि के लिए शेष है जीवन के प्रति श्री अरविन्द की दृष्टि पूर्णतया भावात्मक थी । वे जीवन-जगत को स्वीकार कर समस्त मानव जाति को साथ ले एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जो 'दिव्य समाज की अभिव्यक्ति हो । अतिमानस के स्तर को प्राप्त कर यह कल्पना सार्थक हो सकती है ऐसा उनका विश्वास था ।
स्वामी रामानन्द ने भी जीवन के प्रति भावात्मक दृष्टि अपनाकर जगत को एक सुनिश्चित विकास वादी प्रक्रिया के तहत व्यवस्थित बताया है। जीवन, जगत का प्रयोजनवादी रूप सिद्ध कर सभी को परम तत्व की ओर अग्रसर माना है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता यही रही कि इन्होंने मन से संन्यासी होते हुए भी गृहस्थों के बीच रहकर उन्हें रास्ता दिखाया । यह संसार तो स्व पाठशाला है जिसमें रहकर सभी अनुभवों को जीकर ही उनसे विरक्त हुआ जा सकता है । तप-साथना-योग, मन और शरीर को स्वत: ही कठोर अनुशासन में बाँध देते हैं जहाँ से निर्मल मन की सरल धारा स्वत: नहीं निकल सकती और अपने इष्ट, अपने गन्तव्य का पता नहीं पा सकती है। आनन्दमयी भगवती शक्ति सब जगह स्वयं को उद्भासित कर रही है । आस्था समर्पण का रास्ता अपनाकर इसमें निमग्न हुआ जा सकता है । स्वामी जी का यह व्यावहारिक दर्शन आज भी 'साधना धाम' के माध्यम से मुखरित हो गृहस्थों के बीच लोक कल्याणार्थ कार्य कर रहा है।
प्रेम, योग, साधना को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से चरितार्थ करने वाले संत स्वामी रामानन्द जी के आर्शीवाद से इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण को आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ और आशा करती हूँ कि यह पुस्तक भटकती हुई भारतीयता के प्रति पुन: आस्था जगाने में समर्थ होगी।
अन्त में मैं उन लोगों का नाम यहाँ अवश्य अंकित करना चाहूँगी जिन्होंने मेरी सहायता की है। पूर्णिमा ने तो यह सभी पंक्तियाँ लिखी हैं। और शेष कार्य में जो लोग सम्मिलित हुए हैं वे हैं देवेन्द्र कुमार और पूर्णिमा के पति श्री रघुवंश सहाय। इसके अतिरिक्त मैं प्रोफेसर सदानन्द शाही का नाम भी अंकित करना चाहूँगा जिनकी देख रेख में पुस्तक प्रकाशित हुई है।
इस नये संस्करण में कुछ आवश्यक संशोधनों के अतिरिक्त स्वामी रामानन्द पर एक नया अध्याय जोड़ दिया गया है। मैं आशा करती हूँ पाठकों को यह पुस्तक अवश्य अच्छी लगेगी और उन्हें अपनी संस्कृति की गहराइयों का भरपूर अनुभव होगा और वे लाभान्वित होंगे।
अनुक्रम
1
3
2
दो शब्द
9
राम कृष्ण परमहंस
27
4
स्वामी विवेकानन्द
59
5
स्वामी रामतीर्थ
99
6
महर्षि रमण
131
7
श्री अरविंद
163
8
स्वामी रामानन्द
193
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