पुस्तक परिचय
यह विडम्बना ही है की मानव, जिसे, समाज में उसके कर्मानुसार श्रेष्ठ बौद्धि स्तर का माना जाता है, आज अपनी पौराणिक संस्कृत एंव मान्यताओं को शनैं: शनैं: भूलता जा रहा है | एक कारण तो अपने पैतृक पारम्परिक कार्य से मुँह मोड़ना तथा दूसरा पाशचात्य संस्कृत का अनुसरण करना | समय के साथ चलना, प्रगति एवं विकास के लिए आवश्यक है किन्तु अपने मूल को विस्मृत कारन बुद्विमानी नही कहा जा सकता |
आज व्यक्ति को ये कितने स्मरण है, स्वंय विचार करे एंव सवॅ करे, निराशा ही हाथ लगेगी; चाहे वह शहरी व्यक्ति हो या ग्रामीण | मानसिक कष्ट ओ उस समय अधिक होता है जब अवंटक/ शाखा आदि व्यक्ति अपना गोत्र तो ऋषि का होता है जिसकी जानकारी व्यक्ति को शनैं: शनैं: कम होती जा रही है | इसी क्रम में एक बात और देखी गई है की कइयों को अपना ऋषि गोत्रे तो मालूम है किन्तु उसका अपभ्रंश रूप ही उनको ज्ञात है | उदाहरणार्थ " वत्स का वच्छस या वचिस"||
अनेकानेक गोत्र प्रवर्तक ऋषियों के पौराणिक ग्रथों में केवल नाम मात्र हैं , इनके नाम के अतिरिक्त इनके जीवन वृत पर विशेष प्रकाश डालना भी एक समय है | काल-क्रम से सामग्री का लुप्त हो जाना या विकृत स्वरूप हो जाना सभंव है, उस सत्य से इन्कारनही किया जा सकता |
फिर भी जितना बन पड़ा, गोत्र प्रवर्तक ऋषियों के जीवन वृत्त पर संक्षिप्त जानकारी कराने का प्रयत्न किया है | विस्तार भय से पौराणिक ग्रथों में जो संदर्भ आये है उन्हें भी सम्बन्धित ऋषि के साथ संदर्भित कर दिया है |
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