शोध मात्र नवीन सिद्धांतों के प्रतिपादन हेतु नहीं होते अपितु पुरातन सिद्धांतों को नवीन परिस्थितियों में सत्यापित करना भी शोध होता है। इसके अतिरिक्त यदि देखा जाए तो सैद्धांतिक उद्देश्य का एक तात्पर्य यह भी है कि शोधकर्ता के द्वारा भिन्न-भिन्न घटनाओं और तथ्यों के मध्य पाए जाने वाले प्रकार्यात्मक संबंधों की खोज की जाए साथ में उन स्वाभाविक नियमों की भी खोज की जाए जिनके द्वारा सामाजिक घटनाएं प्रदर्शित और नियंत्रित होती है। इस दृष्टिकोण से यदि देखा जाए तो शोध का एक उद्देश्य अनुभव सिद्ध तथ्यों के आधार पर वैज्ञानिक अवधारणाओं को प्रस्तुत करना और उन्हें विकसित भी करता है। जैसे, समाज के अंतर्गत जाति व्यवस्था से संबंधित वर्तमान प्रक्रियाओं का अध्ययन करके जब इन तत्त्वों के आधार पर संस्कृतिकरण, आधुनिकीकरण तथा सम्पन्न जाति जैसी अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं तो यह कार्य शोध के सैद्धांतिक उद्देश्य को ही स्पष्ट करता है। समाज में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिसका अध्ययन अनेक दृष्टियों से किया जाता है। शोध के माध्यम से यदि संस्कृतिकरण जैसे सैद्धांतिक उद्देश्य की बात की जाये तो एम. एन. श्रीनिवास का नाम लिया जा सकता है। पश्चिमीकरण या संस्कृतिकरण नामक उनकी अवधारणा शोध के इसी रूप पर आधारित है।
शोध के अंतर्गत जिस दूसरे उद्देश्य की गणना की जाती है उसका प्रमुख पक्ष व्यावहारिक अथवा उपयोगितावादी है। इसका संबंध मनुष्य की उस स्वाभाविक इच्छा से है जिसके द्वारा वह उपयुक्त ज्ञान को एकत्रित करके अपने कार्यों को अधिक कुशलता के साथ पूर्ण कर सकता है। इसका अर्थ यह है कि एक शोधकर्ता जीवन और समाज में घट रही घटनाओं को जानने और समझने के लिए मात्र सिद्धांत को ही प्रस्तुत नहीं करता अपितु सुझाव भी प्रस्तुत करता है जिनके माध्यम से जीवन को और अधिक बेहतर बनाया जा सके। इस उद्देश्य को यदि व्यापकता में देखा जाए तो यह कहना होगा कि वह ज्ञान व्यर्थ है जिसका उपयोग हम व्यावहारिक क्षेत्र में नहीं कर सकते।
सत्यकेतु सांकृत
अधिष्ठाता साहित्य अध्ययन पीठ, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली ।
शिक्षा : प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र उच्च-विद्यालय, पटना।
स्नातक : पटना विश्वविद्यालय, पटना, बिहार। स्नातकोत्तर : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
हिन्दी उपन्यास में विश्वविद्यालयीय परिसर जीवन का अंकन विश्लेषणात्मक अध्ययन विषय पर वर्ष 1996 में पी-एच.डी. की उपाधि। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र की कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन पर यू.जी. सी. द्वारा प्रदत्त लघु शोध परियोजना वर्ष 2006 में पूर्ण। तीन दशकों का अध्यापन अनुभव। प्रकाशित पुस्तक : हिन्दी उपन्यास और परिसर जीवन (आलोचना), हिंदी कथा-साहित्य :
एक दृष्टि (आलोचना), उन्नीसवीं शताब्दी का हिंदी साहित्य (आलोचना), आलोचना के स्वर (संपादित), भाषा, समीक्षा, पुस्तक वार्ता, हिन्दी अनुशीलन, साक्षात्कार, नई धारा आदि पत्रिकाओं में 100 से अधिक पुस्तक समीक्षाएँ, लेख प्रकाशित। यू.जी.सी. एवं अन्य प्रमुख संस्थानों द्वारा प्रायोजित लगभग 100 से अधिक राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में विभिन्न विषयों पर शोध-पत्रों का वाचन एवं उनका प्रकाशन।
पुरस्कार : प्रवासी साहित्य आलोचना सम्मान, कथा यू.के. लंदन 2018 उर्वशी सम्मान, 2018 रामचंद्र शुक्ल आलोचना सम्मान, पल्लव संस्थान। शोध सारथी सम्मान, जबलपुर। काविश आलोचना सम्मान, दिल्ली 20191
भूमिका
भारतीय पाठालोचन का मुख्य कार्य हस्तलिखित ग्रन्थों की उपलब्ध प्रतिलिपियों की आलोचना करना है। हमें आज जो पाठ उपलब्ध होते हैं उनमें अनेक प्रकार की भूलें मिलती हैं। चूँकि ये प्रतिलिपियाँ किसी यांत्रिक विधि से न तैयार कर मानव हाथों से निर्मित हैं, अतः उनमें भूलों का प्रवेश हो जाना सर्वथा स्वाभाविक है। यह सामान्य अनुभव की बात है कि आदर्श प्रतिलिपि से तैयार की गई प्रतिलिपि कभी भी आदर्श प्रतिलिपि के समान नहीं होती। ज्यों-ज्यों हम आदर्श प्रतिलिपि की प्रतिलिपियों से प्रतिलिपियाँ तैयार करते जाते हैं और मूल हस्तलिखित प्रति से दूर हटते जाते हैं त्यों-त्यों उनमें और भी अधिक भूलें होती जाती हैं और इस प्रकार तैयार की गई प्रतिलिपियाँ आदर्श प्रति से अधिक दोषपूर्ण और निकृष्टतर होती जाती हैं। इस प्रकार जितनी प्रतिलिपियाँ तैयार होती हैं। उनमें अशुद्धियों की मात्रा भी बढ़ती जाती हैं।
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