पुस्तक परिचय
अनेक लोग तर्क करते है कि गुरु आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि वास्तविक गुरु तो हमारे अंदर ही हैं। यह सच है, परन्तु कितने लोग उनके निर्देशों को सुनने, समझने और अनुसरण करने का दावा कर सकते हैं। आप चाहे जो हों या जैसे हों, गुरु आपके जीवन की आवश्यकता हैं। गुरु शुद्ध देदीप्यमान अन्तरात्मा हैं, जो अज्ञानान्धकार का उन्मूलन करते हैं। एक बार गुरु से सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर काल इसे नहीं बदल सकता और न मृत्यु ही इसे मिटा सकती है।
स्वामी सत्यासंगान्द सरस्वती द्वारा रचित एवं संकलित यह पुस्तक दो खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में गुरु को कैसे पहचानें, गुरुओं के प्रकार, शिष्यों के प्रकार, शिष्यों के प्रकार, गुरु के प्रति नकारात्मक भाव, दीक्षा आदि अध्यायों का समावेश किया गया है। दि्तीय खण्ड में चुने हुए सत्संगों का संकलन है, विषय है गुरु के साथ आध्यात्मिक सम्बन्ध जोड़ना, अहंकार का अपर्ण, सचारण के रहस्य, प्रत्येक गुरु एक प्रकाश पुंज आदि। यह जिज्ञासुओं और साधकों की गुरु सम्बन्धित लगभग सभी मुख्य जिज्ञासाओं का समाधान करेगी एवं उनके लिए प्रेरणा का कार्य करेगी।
लेखक परिचय
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा ग्राम में 1923 में हुआ । 1943 में उन्हें ऋषिकेश में अपने गुरु स्वामी शिवानन्द के दर्शन हुए । 1947 में गुरु ने उन्हें परमहंस संन्याय में दीक्षित किया । 1956 में उन्होंने परिव्राजक संन्यासी के रूप में भ्रमण करने के लिए शिवानन्द आश्रम छोड़ दिया । तत्पश्चात् 1956 में ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय योग मित्र मण्डल एवं 1963 मे बिहार योग विद्यालय की स्थापना की । अगले 20 वर्षों तक वे योग के अग्रणी प्रवक्ता के रूप में विश्व भ्रमण करते रहे । अस्सी से अधिक ग्रन्यों के प्रणेता स्वामीजी ने ग्राम्यविकास की भावना से 1984 में दातव्य संस्था शिवानन्द मठ की एवं योग पर वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से योग शोध संस्थान की स्थापना की । 1988 में अपने मिशन से अवकाश ले, क्षेत्र संन्यास अपनाकर सार्वभौम दृष्टि से परमहंस संन्यासी का जीवन अपना लिया है ।
परिचय
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती की विचारधारा के अनुसार गुरु और शिष्य से सम्बन्धित विषय पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से इस पुस्तक की रचना की गयी है । इस प्राचीन और कालातीत परम्परा पर बहुत कुछ कहा जा चुका है किन्तु इस पुस्तक में गुरु शिष्य सम्बन्ध के दैनिक व्यावहारिक पक्ष से सम्बद्ध प्रमुख प्रासंगिक क्षेत्रों को समेकित किया गया है । प्रथम खण्ड की रचना स्वामी सत्यसंगानन्द सरस्वती द्वारा की गयी है, जो हाल के वर्षों में स्वामी जी के समस्त भ्रमण कार्यक्रमों में उनके साथ रही हैं । द्वितीय खण्ड में गुरु शिष्य सम्बन्ध पर स्वामी सत्यानन्द जी द्वारा दिये गये सत्संग और प्रवचनों को समाविष्ट किया गया है । इसमें उनके द्वारा अपने शिष्यों को लिखे गये पत्रों के अनेक उद्धरण भी सम्मिलित किये गये हैं । जिज्ञासु एवं साधक गुरु शिष्य सम्बन्ध के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे एवं आध्यात्मिक विकास करेंगे, इसी भाव से इस पुस्तक का प्रणयन किया गया है ।
प्रस्तावना आत्मार्पण
मेरे गुरु ने मुझे निम्नलिखित कहानी सुनायी
एक दिन एक राजा के दरबार में एक ऋषि आये । राजा ने उनसे कहा मैं आपको क्या दूँ? ऋषि ने उत्तर दिया जो तुम्हारा अपना हो । अति उत्तम राजा ने कहा मैं आपको दस हजार गायें देता हूँ । किन्तु वे तुम्हारी नहीं हैं ऋषि ने कहा वे तो तुम्हारे साम्राज्य की सम्पत्ति हैं । मैं तो सिर्फ वही चीज स्वीकार करुँगा जो पूर्णत तुम्हारी ही है । यह सुनकर राजा ने कहा तब मैं अपना एक पुत्र देता हूँ । ऋषि ने उत्तर दिया तुम्हारा पुत्र भी तुम्हारा अपना नहीं है । वार्त्तालाप चलता रहा । ऋषि राजा द्वारा अर्पित सभी वस्तुओं को यह कहकर अस्वीकार करते गये कि वे राजा की अपनी नहीं हैं । अन्त में राजा ने कहा मैं अपने आपको अर्पित करता हूँ । ऋषि ने पूछा इस अर्पण का क्या तात्पर्य है? तुम तो यह भी नहीं जानते कि तुम कौन हो? ऐसी स्थिति में तुम अपने आपको मुझे कैसे अर्पित कर सकते हो? कुछ क्षण गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद राजा ने कहा मैं आपको अपना मन देता हूँ । वह तो मेरा अपना है । ऋषि अब भी सन्तुष्ट नहीं थे । यदि तुम किसी को अपना मन देते हो, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि उस व्यक्ति की स्पष्ट अनुमति के बिना तुम उस व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी के भी विषय में नहीं सोचोगे । किसी को पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ दान देकर फिर उन्हें स्वयं खर्च करने से दान का क्या तात्पर्य होगा? ऐसा कहकर ऋषि दरबार से विदा हो गये ।
कुछ महीनों के पश्चात् वे पुन राज दरबार में पधारे । उन्होंने राजा से पूछा क्या अब तुम मुझे अपना मन समर्पित करने हेतु तैयार हो? तुम्हारी सम्पत्ति, साम्राज्य, महारानी या सन्तान के बारे में मैं कुछ सुनना नहीं चाहता हूँ । तुम निष्ठा और गम्भीरतापूर्वक सोचकर मेरे प्रश्न का उत्तर दो । राजा ने गम्भीरतापूर्वक विचारकर उत्तर दिया नहीं, मैं अभी इस हेतु तैयार नहीं हूँ । यह सुनकर ऋषि चले गये । कुछ समय पश्चात् राज दरबार में तीसरी बार उनका पदार्पण हुआ । इस अवधि में राजा ने योगाभ्यास द्वारा अपने को तैयार कर लिया था । उन्होंने ऋषि से कहा अब मैं आपको अपना मन अर्पित करने का प्रयास करूँगा । यदि प्रयास में असफल होऊँ तो कृपाकर मुझे क्षमा करेंगे ।
ऋषि ने राजा को अपना शिष्य बना लिया । तदुपरान्त राजा के मन ने अपने गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय में सोचना बन्द कर दिया । उन्होंने अपने एवं अपने राज्य के कल्याण के बारे में भी चिन्ता करनी छोड़ दी । उनका मन निरन्तर गुरु चरणों में तल्लीन रहने लगा ।
प्रजा ने गुरु को इस स्थिति की सूचना दी । उन्होंने राजा को अपने पास बुलाकर कहा अब समय आ गया है कि तुम अपने राज्य के प्रशासनिक क्रिया कलापों में पुन संलग्न हो जाओ । यह मेरी आज्ञा है ।
यह छोटी सी कहानी स्पष्ट रूप से यह दर्शाती है कि पूर्ण आत्मसमर्पण में ही गुरु शिष्य सम्बन्धों का मर्म निहित है । शिष्य अपने मन को पूर्णत गुरु में विलीन करते हुए उन्हें अपना सीमित व्यक्तित्व अर्पित करता है । तदुपरान्त वह उनसे परिपूर्ण व्यक्तित्व प्राप्त करता है । यही आत्मसमर्पण की सही अवधारणा है, किन्तु हमलोगों में से कितने इसे प्राप्त करने की आशा करते हैं । प्रत्येक शिष्य का जीवन इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ही समर्पित होना चाहिये ।
विषय सूची
खण्ड प्रथम विषय
1
गुरु की आवश्यकता
2
गुरु कैसे प्राप्त करें
8
3
गुरु को कैसे पहचाने
15
4
गुरु की सार्थकता
19
5
गुरु तत्व
23
6
गुरु की श्रेणियाँ
26
7
शिष्य की श्रेणियाँ
38
गुरु आज्ञा पालन
55
9
गुरु के प्रति नकारात्मकता
58
10
शिष्य का अहंकार
63
11
समर्पण
66
12
सम्प्रेषण
71
13
गुरु कृपा
75
14
गुरु माता पिता एवं मित्र
79
दीक्षा
84
16
गुरु एक ही होना चाहिये
89
17
गुरु दक्षिणा
91
18
मन्त्र
97
गुरु सेवा
102
20
ईश्वर रूप गुरु
110
21
हर चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती
113
22
गुरु भूमि भारत
117
उपसंहार
120
24
खण्ड द्वितीय विषय
25
शिष्यत्व ही योग का प्रारम्भ है
128
गुरु का चयन
137
27
सम्बन्ध की स्थापना
140
28
गुरु की अन्तरात्मा से सम्बन्ध जोड़ना
143
29
गुरु परम्परा
153
30
अपरिहार्य उपादान
157
31
गुरु की भूमिका
162
32
श्रद्धा एक अपरिमेय शक्ति
172
33
गुरु की विशिष्टता
182
34
अहंकार का विसर्जन
186
35
सम्प्रेषण एवं शिक्षण
200
36
सम्प्रेषण का रहस्य
205
37
गुरु को कहाँ खोजें?
217
प्रत्येक गुरु एक प्रकाश है
222
39
एकनिष्ठा का महत्व
227
40
क्या गुरु की प्रशंसा करनी चाहिये?
230
41
मुक्त मन
233
42
एक शिष्य की कहानी
239
43
भक्ति कैसे जगायें?
242
44
शिष्य को निर्देश
244
45
गुरु एक मनोचिकित्सक
251
46
गुरु प्रहरी नहीं है
254
47
गुरु कृपा ही केवलम्
257
48
स्वामी शिवानन्द
267
49
गुरु स्तोत्रम
280
50
शब्दावली
282
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