राभायण का प्रसंग चलते ही मेरा अतीत वर्तमान की गति रोक देता है और मुझे लाकर खड़ा कर देता है स्मृति के गलियारे में, जहाँ अनुजित हो रही है वर्षों पूर्व सुनी हुई गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा विरचित रामचरितमानस की यह अर्घाली-
'मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारी ॥'
लिखनेवाले पर तो सारा देश श्रद्धानत है, परंतु चौपाइयों को कौन, कब सुरों में ढाल गया, जानने की जिज्ञासा आज भी बनी हुई है। स्वर खम्माज ठाट के हैं। ये भी मैं काफी समय पश्चात् गुरुदेव जनार्दन शर्माजी से जान पाया। रामायण की चौपाइयाँ कभी अलीगढ़ के अचलेश्वर मंदिर की रामलीला से तो कभी घरों में होनेवाले रामायण के अखंड पाठ से मुझ तक पहुँचर्ची।
'मंगल भवन अमंगल हारी' का शब्दार्थ मैंने जाना अपने अग्रज स्व. धन्य कुमार जैनजी से। वे मेरे शब्दकोश भी थे, वाचनालय भी, हितचिंतक भी और मार्गदर्शक भी। शब्दार्थ तो जान लिया, परंतु भावार्थ जानने का भाव ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। जो कथा शिवजी ने पार्वतीजी को, काकभुशुंडिजी ने गरुड़जी को, नारदजी ने वाल्मीकिजी को, याज्ञवल्क्यजी ने मुनि भरद्वाज को सुनाई, जिसकी पतित पावनी धारा तुलसीजी ने जनमानस में बहाई, उस कथा को कहना मेरे लिए दूध की नहर निकालने के समान है। समझने के लिए परमहंस का विवेक चाहिए, उसका प्रिय लगना, कथा श्रवण में रुचि पैदा होना, जन्म-जन्म कृत सुकृत का फल जानना चाहिए और वह फल श्रीराम जानकीजी ने मुझे निस्संदेह प्रदान किया है।
मेरे विश्वास की आधारशिला यद्यपि ज्योतिष नहीं, एक ज्योतिषी की इस भविष्यवाणी को मैं नकार भी नहीं सकता। उन्होंने बड़े विश्वास के साथ कहा था कि तुम्हारी भक्ति रस की रचनाएँ सर्वाधिक जनप्रियता लाभ करेंगी और ऐसा ही हुआ।
राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'गीत गाता चल' का निर्माण हो रहा था। फिल्म के श्रुतिधर नायक को चौपाइयाँ गानी थीं। ताराचंद बड़जात्याजी के सुपुत्र श्री राजकुमार बड़जात्याजी ने आग्रहपूर्वक कहा कि हम क्यों न पारंपरिक धुन से हटकर एक ऐसी धुन दें, जो आपको अमरत्व तथा कथाकारों को सुरों के नए आभूषण से विभूषित करे।
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