शोध एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। व्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृन्दावन का यह मुख्य उद्देश्य है कि ब्रज के इतिहास, साहित्य, कला और लोक संस्कृति पर होने वाले नवीन मौलिक शोध कार्यों को प्रोत्साहन देना और उन्हें प्रचारित-प्रसारित करना।
इसी क्रम में प्रस्तुत पुस्तक 'पुष्टिमार्ग की वार्ताओं का परिचय' प्रकाशित की जा रही है जिसमें पुष्टि सम्प्रदाय के वार्ता साहित्य का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सूक्ष्म विवेचन करने वाले दस शोध आलेखों को संग्रहीत किया गया है।
'पुष्टिमार्ग' या 'पुष्टि सम्प्रदाय' के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचर्य हैं। इसलिए वैष्णवों की इस सम्प्रदाय का एक अन्य नाम 'वल्लभ सम्प्रदाय' भी है। भागवत महापुराण के अनुसार भगवान का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है। आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर पुष्टिमार्ग की स्थापना की थी। सम्प्रदाय का दार्शनिक सिद्धान्त' शुद्धादैत' कहलाता है और उपासना के केन्द्र में श्रीकृष्ण का परब्रह्म स्वरूप है। सम्प्रदाय की परम्परा के अनुसार गुरु का पद वल्लभाचार्यजी के बाद उनके पुत्र गोस्वामी विठ्ठलनाथजी को प्राप्त हुआ। गोस्वामी विट्ठलनाथजी के सात पुत्रों ने पुष्टि सम्प्रदाय की सात अलग-अलग पीठें स्थापित कर्की जिन पर आज भी आचार्य वल्लभ के वंशज गोस्वमी लोग गुरु के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। इस कारण से सम्प्रदाय का एक और नाम 'वल्लभकुल' प्रसिद्ध है।
यह सम्प्रदाय मुख्यतः ब्रज में ही विकसित हुई। सम्प्रदाय के प्रधान सेव्य विग्रह (प्रतिमा) श्रीगोवर्धननाथजी की प्रतिष्ठापना 16 वीं शताब्दी में गिरिराज पर्वत पर मंदिर बनाकर की गयी। श्रीगोवर्धननाथजी का विग्रह वर्तमान में राजस्थान के' नाथद्वारा' नगर में स्थापित है जिसे मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की धर्मांध नीति के कारण ब्रज से मेवाड़ में ले जाकर स्थापित करना पड़ा। अब इस विग्रह की प्रसिद्धि 'श्रीनाथजी' के नाम से है। व्रज में पुष्टि सम्प्रदाय के मन्दिर, बैठकें और हवेलियाँ मथुरा, गोकुल तथा गोवर्धन में हैं। राजस्थान में कामवन (कामाँ), नाथद्वारा और काँकरोली में इस सम्प्रदाय के प्रधान पीठ स्थापित हैं। ब्रज की देवालयी संस्कृति के निर्माण में पुष्टिमार्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
सन्तन मिलि निर्णय कियो, मथि पुराण इतिहास। भजवे को दोई सुघर, कै हरि कै हरिदास।।
भक्तों की इसी भावना को लेकर वल्लभ-सम्प्रदाय में वार्ता कहलाने वाली रचनाओं का निर्माण हुआ है। भगवद्भक्तों की महिमा स्मरण करने के लिए रचित ये वार्ताएँ स्वभावतः भावना प्रधान हैं। भक्त की दृष्टि और इतिहासकार की दृष्टि में अन्तर होता है।
वल्लभ-सम्प्रदाय में इन वार्ताओं को धर्म-ग्रन्थ के समान मर्यादा प्राप्त हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने भी वार्ताओं को पर्याप्त महत्व दिया है। अतः स्वभावतः साधारण पाठक जानना चाहता है कि वार्ताओं में क्या है और उनकी उपयोगिता क्या है। धर्म और सम्प्रदाय की दृष्टि से उपयोगिता और इतिहास की दृष्टि से उपयोगिता एक और अभिन्न नहीं होती। धर्म की दृष्टि से, सम्प्रदाय की दृष्टि से उपयोगिता के विचार करने वाले ग्रन्थों और आलेखों की कमी नहीं होती पर वे इतिहास की जिज्ञासा पूरी नहीं कर पाते।
अतएव साधारण पाठकों की इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति के लिए मीरा स्मृति संस्थान (चित्तौड़गढ़) की त्रैमासिक शोध-पत्रिका में समय-समय पर मेरे आलेख प्रकाशित हुए। इन आलेखों को पढ़कर विद्वान पाठकों ने सुझाव दिया कि इन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित करना उत्तम होगा, ताकि 'मीरायन' के नियमित पाठकों तक ही ये सीमित न रहें।
तदनुसार वार्ता सम्बन्धी मेरे इन आलेखों का यह संकलन प्रस्तुत है। इन आलेखों के बारे में मेरा स्वयं कुछ कहना धृष्टता होगी। निर्णय विद्वानों के हाथ है। इतिहास की दृष्टि से देखना और सोचना-समझना आगे बढ़े यही मेरी एकमात्र कामना है
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