पुराणों का महत्त्व और स्वामी दयानन्द के विचारों के विषय में वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन करना ही ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है। अध्ययन की सुविधा के लिये प्रस्तुत पुस्तक को छः परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। प्रथम परिच्छेद में पुराण के संज्ञा, लक्षण, कर्त्ता, समय तथा महत्त्व के विषय में विचार किया गया है। साथ ही, इन प्रसंगों में स्वामी दयानन्द के तत्सम्बन्धी मन्तव्यों को भी प्रस्तुत किया गया है।
द्वितीय परिच्छेद के अन्तर्गत वेद-मन्त्रों, ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यक-ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्र-ग्रन्थों (श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र तथा गृह्यसूत्र), स्मृतियों, रामायण-महाभारत, निरुक्त आदि व्याकरण के ग्रन्थों और भारतीय दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त 'पुराण' शब्द पर विचार करते हुए यह दिखलाया गया है कि यहाँ 'पुराण' शब्द किसी ग्रन्थ-विशेष का वाचक है अथवा विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
तृतीय परिच्छेद में धर्म के विषय में पुराणों का प्रामाण्य, पुराणोक्त धर्म, वर्णाश्रम-धर्म, पुराण में कथित दान, श्राद्ध, तीर्थ आदि कुछ प्रमुख कर्त्तव्य एवं स्वामी दयानन्द के तत्सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत किया गया है।
चतुर्थ परिच्छेद के अन्तर्गत कुछ वेद-मन्त्रों के अर्थ का पुराणों द्वारा प्रतिपादित अर्थ, वैदिक आख्यानों का पुराणों में किया गया उपबृंहण, वैदिक पदों की पुराण-गत व्युत्पत्ति तथा ऋषि, देवता के विषय में विचार किया गया है। साथ ही, स्वामी दयानन्द के तत् तत् विचारों को प्रस्तुत किया गया है।
पंचम परिच्छेद में पुराणोक्त सृष्टि (विशेषतः सृष्टि-तत्त्व-विवेचन), पुराणों में वर्णित ईश्वर स्वरूप, अवतार-विवेचन, पुनर्जन्म-सिद्धान्त, स्वर्ग-नरक तथा मोक्ष के विषय में विचार करते हुए स्वामी दयानन्द के तत्सम्बन्धी मन्तव्यों का निरूपण किया गया है।
षष्ठ परिच्छेद में समस्त परिच्छेदों का संक्षिप्त सार है।
नाम : डॉ. दुलीचन्द शर्मा
जन्मतिथि : 3 दिसम्बर, 1954
पिता का नाम : श्री भूराजी शर्मा
माता का नाम : श्रीमती अशर्फी देवी
ग्राम : नरसिंहपुर गढी, डॉ. धारण, तहसिल बावल, रिवाड़ी (हरियाणा) ।
शिक्षा : एम.ए. (1976), एम.फिल. (1976), पी.एच.डी. (1984) (संस्कृत) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र ।
कार्यक्षेत्र : 23 दिसम्बर, 1983 से 31 दिसम्बर, 2014 तक श्रीकृष्ण राजकीय आयुर्वेदिक कालेज, कुरुक्षेत्र में संस्कृत प्रवक्ता के पद पर कार्य किया। फिर सेवानिवृति के पश्चात् दिसम्बर, 2015 से दिसम्बर 2016 तक इसी पद पर कार्य किया। तत्पश्चात् 2 जनवरी 2017 से 31 दिसम्बर, 2019 तक नेशनल कालेज ऑफ आयुर्वेदा, बरवाला (हिसार) में संस्कृत प्रवक्ता के पद पर कार्य किया तथा इसी संस्थान में जनवरी 2020 से उपनिदेशक के पद पर कार्यरत हैं।
संस्कृत साहित्य में पुराण-ग्रन्थों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इन्हें हिन्दू धर्म का आधार स्तम्भ माना जाता है। आज परम्परागत मन्तव्यों की परीक्षा करके उनका मूल्यांकन किया जा रहा है। कुछ विचारकों ने अन्य प्रचलित ग्रन्थों के समान पुराणों के विषय में भी इस प्रकार की परीक्षा को वाञ्छनीय समझा है। स्वामी दयानन्द ने प्रचलित पुराण-ग्रन्थों के महत्त्व को चुनौती देते हुए यत्र-तत्र अपने विचार प्रकट किये हैं। इसके विपरीत परम्परा के पोषक विद्वानों ने स्वामी दयानन्द के विचारों का विरोध करके पुराणों के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। पुराणों का महत्त्व और स्वामी दयानन्द के विचारों के विषय में वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन करना ही ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है।
अध्ययन की सुविधा के लिये प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को छः परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। 'विषय-प्रवेश' नामक प्रथम परिच्छेद में पुराण के संज्ञा, लक्षण, कर्त्ता, समय तथा महत्त्व के विषय में विचार किया गया है। साथ ही, इन प्रसंगों में स्वामी दयानन्द के तत्सम्बन्धी मन्तव्यों को भी प्रस्तुत किया गया है।
द्वितीय परिच्छेद के अन्तर्गत वेद-मन्त्रों, ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यक ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्र-ग्रन्थों (श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र तथा गृह्यसूत्र), स्मृतियों, रामायण-महाभारत, निरुक्त आदि व्याकरण के ग्रन्थों और भारतीय दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त 'पुराण' शब्द पर विचार करते हुए यह दिखलाया गया है कि यहाँ 'पुराण' शब्द किसी ग्रन्थ-विशेष का वाचक है अथवा विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
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