प्रभु के मुख से निकले प्रत्येक शब्द में ऐसी शक्ति है कि वह मानव जीवन के प्रत्येक पहलू में नवस्फूर्ति का संचार कर सकती है। तूम अगर उनमें से हो जो इस सत्य को समझ पाते।
संसार की समस्त गौचर, अगोचर वस्तुओं और प्राणियों का सृजनकर्ता एकमात्र ईश्वर है। वही जीवनदाता है, वही पालनहार और परमपिता है। ईश्वर ने जिस क्षण चाहा कि वह जाना जाये उसी पल उसने इस सृष्टि की रचना की और प्राणियों में सर्वोत्तम मानव का सृजन किया, उसके सर्वांगीण विकास के साधन उपलब्ध कराये और पंचतत्व से युक्त शरीर प्रदान कर उसे भौतिक एवं बौद्धिक क्षमता से भर दिया और उसे चेतनायुक्त करने के लिये स्वयं का अंश प्रदान किया ताकि वह अपनी आध्यात्मिक क्षमता के सहारे अपने जीवन का विकास कर सके और अपने सृजनकर्ता को पहचान सके, उसकी आराधना कर सके तथा उसके आदेशों का पालन कर सके। यह सब तब ही सम्भव हो सकता है जब मानव अपनी आत्मा का विकास करे। मानव जीवन की आत्मा के विकास की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। अर्थात जीवन चक्र के संवेग का मूल आध्यात्मिकता या आत्मा के विकास में निहित है।
आत्मा का विकास ईश्वर की आराधना, उसके वचनों का पालन, उसके गुणों को आत्मसात करते हुए उसकी शिक्षाओं के प्रसार पर निर्भर करता है। विकास की यह प्रक्रिया प्रमुधर्म के विधानों के परिपालन और शिक्षण के मार्ग से गुजरती है।
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