कविता कोई हवाई चीज नहीं है। योगी, वैज्ञानिक अथवा समाजशास्त्री सत्य की खोज करने के लिए जितनी गहरी समाधि लगाता है, उतनी गहरी समाधि लगाए बिना कवि भी सत्य को नहीं पा सकता। किन्तु कवि और वैज्ञानिक के सत्यों में भेद है। विज्ञान स्थूलता की कला है। वह एक चीज से दूसरी चीज की दूरी मापता है और हर चीज को अपनी काठ की उँगलियों से छूकर यह बतलाता है कि वह कड़ी या मुलायम है। किन्तु कविता वस्तुओं के सूक्ष्म रूप का मूल्य ढूँढ़ती है, वह उनके उन पक्षों का विश्लेषण करती है जो गणित की भाषा में व्यक्त नहीं किए जा सकते। और चूँकि बुद्धि भी गणित को छोड़कर और भाषा समझ नहीं सकती; इसलिए कविता अपने विश्लेषण का परिणाम बुद्धि नहीं, बल्कि हृदय के सामने निवेदित करती है; क्योंकि हृदय उन संकेतों को समझ सकता है, जिनके माध्यम से कवि अदृश्य और अनिर्वचनीय का वर्णन करता है। ऐसी अवस्था में, निरी कविता कहकर जो लोग कविता को आसानी से बर्खास्तं कर देना चाहते हैं, उन्हें यों ही नहीं छोड़ देना चाहिए। आखिर किस गुण या दुर्गुण के कारण कविता इस अनादर के साथ बर्खास्त कर दी जाएगी? कविता का प्रधान गुण-उक्ति या वर्णन का सौन्दर्य है। कविता में शब्दों की लड़ी संगीतपूर्ण होती है और उसके भीतर एक मोहक चित्र होता है, जो आनन्द के प्रवाह में मनुष्य के मन को बहा ले जाता है। जो लोग कठोर वस्तुवादी हैं, वे कहते हैं कि यह आनन्द एक प्रकार की मदिरा है, जो हमें अपने नशे से मतवाला बनाकर हमारा ध्यान जीवन की ठोस घटनाओं और क्रियाओं से अलग ले जाकर हमें कल्पना में निमग्न कर देती है, हमें उस दुनिया में भटकने को मज़बूर करती है, जो सच्ची नहीं है, जहाँ रोटी कमाने का काम नहीं चल सकता, जहाँ निन्नानवे को सौ में परिणत करने का कोई उपाय नहीं मैं अपने को वस्तुवादी मानता हुआ भी वस्तुवादियों की बहुत-सी झड़पें झेल चुका हूँ। किन्तु, आज भी मुझे यह शंका ग्रसित किए हुए है कि अगर सौन्दर्य को हम कविता का पहला गुण नहीं मानें, तो फिर उसका और कौन गुण प्रथम स्थान पर रखा जा सकता है? फूल, चाँद, नदी, वन, पर्वत, जलप्रपात, तारे और आकाशइनका भी पहला गुण सौन्दर्य ही है। हम मानते हैं कि प्रकृति के इन विविध उपकरणों का कोई-न-कोई वैज्ञानिक उपयोग भी हैं या कालक्रम में हो सकता है। किन्तु मनुष्य को वे उपयोगों के कारण प्यारे नहीं हैं। प्रिय तो वे सिर्फ इसलिए हैं चूँकि उनमें सौन्दर्य है। और बच्चों के बारे में हमारा क्या विचार हो सकता है? क्या माँ-बाप उन्हें इसलिए प्यार करते हैं कि वे बड़े होने पर उन्हें कमाकर खिलाएँगे? तो फिर जवाहरलालजी दिल्ली-भर के बच्चों को बुलाकर अपना समय क्यों बर्बाद करते हैं?
एक लेखक ने अभी हाल में कविता की तुलना सुन्दरियों से की है। कविता की तरह स्त्रियाँ भी सुन्दर होती हैं, किन्तु, सुन्दर कविता से परहेज करनेवाले लोग सुन्दर स्त्रियों की उपेक्षा नहीं करते और न कभी वे यही कहते हैं कि स्त्रियों को सौन्दर्य-परिहार के लिए प्रयत्न करना चाहिए; क्योंकि उनकी रूप-मदिरा से समाज के कर्मठ लोग 'ठोस घटनाओं' से विमुख हो रहे हैं। यह ठीक है कि यदा-कदा नारी-सौन्दर्य का प्रभाव वैयक्तिक शैथिल्य अथवा वैराग्य का कारण हुआ है, किन्तु उसे हम नियम नहीं, अपवाद ही कहेंगे। सच तो यह है कि जिस प्रकार पुरुष और नारी के अंगों में अभिव्यक्त सौन्दर्य सच्चा और मूल्यवान है, उसी प्रकार पुरुष और नारी के द्वास विरचित काव्य से फूटनेवाला सौन्दर्य भी सच्चा और मूल्यवान होता है।
मनुष्य हर चीज को इसलिए प्यार नहीं करता चूँकि वह उपयोगी होती है। चीजें एक साथ ही प्यारी और उपयोगी हो सकती हैं, किन्तु पहले उपयोग और पीछे प्यार, यह क्रम दुनिया में नहीं देखा जाता। फूल देवता पर चढ़ाए जाते हैं और उनसे इत्र और सेंट भी निकाली जाती है। मगर हम फूलों को सिर्फ इसीलिए नहीं चाहते क्योंकि उससे मनुष्य के सूक्ष्म जीवन की चर्चा मत करो, क्योंकि सूक्ष्म जीवन तो गज की माप में आयेगा नहीं।
सरोज कुमारी
जन्म स्थान : जिला बदायूँ (उ.प्र.) शिक्षा: एम. फिल. पी-एच.डी
प्रकाशन : निराला का गद्य साहित्य (2015), राम की शक्तिपूजा का रचना-विधान (2015),
छायावादी कविता और राम की शक्तिपूजा (2016), जयशंकर प्रसाद (2016), आधुनिक भारतीय भाषा (2016), नवजागरण और छायावाद (2017), स्त्री लेखन का दूसरा परिदृश्य (2017), आधुनिक हिन्दी कविता (संपादित, 2014), साहित्य संदर्भ (संपादित, 2014), हिंदी पत्रकारिता : चुनौतियाँ और समाधान (संपादित, 2019), कामकाजी महिला (2020), कामकाजी महिलाओं का संघर्ष (सं. 2023); स्त्री कवि कौमुदी (2023); विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ और 35 आलेख प्रकाशित; विभिन्न राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में वक्तव्य एवं लगभग 50 शोध पत्र प्रस्तुति। कॉर्डिनेटर, हिंदी पत्रकारिता कोर्स, जुलाई 2013 से 2018 तक पी-एच. डी. हेतु शोध निर्देशक, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।
पुरस्कारः महाश्वेता देवी राष्ट्रीय पुरस्कार 2020; जन मीडिया पुरस्कार 2020 सम्प्रति प्रोफेसर, विवेकानंद कॉलेज, हिंदी विभाग (दिल्ली विश्वविद्यालय)
संपर्कः मं.नं. 362, सेक्टर-01, बसुन्धरा, गाजियाबाद (उ.प्र.)
भूमिका
कविता को समझने के लिए विभिन्न पाठ मौजूद हैं। किसी विचार, वस्तु, स्थिति, मूल्य, मान, प्रकृति और उसके मत मतांतर को कविता में यथारूप स्वीकार कर कविता को समझने की परम्परा नहीं रही है स कविता का पाठ समय-समय पर बदलता रहा है। यही कारण है कि कविता में मूल्यों का प्रतिमानीकरण करते हुए हम प्रश्नाकुल रहे हैं। हमारे चिंतन के केंद्र में रचना रही है- रचनाकार नहीं रहा। कृति या कलाकृति की हमने समग्रता में मूल्यांकन हमारे चिंतन के केंद्र में रहा है। विभिन्न कविता सिद्धांतों के कारण हमें अपनी भारतीय काव्यशास्त्रीय जड़ों की ओर लौटने का अवसर मिलता रहा है। आज अभिनवगुप्त के ध्वनि-चिंतन, भामह के अलंकार-चिंतन, भरत के रस चिंतन के साथ मिशेल फूको के विमर्श-सिद्धांत, देरिदा के विखंडनवाद आदि चिंतन को ग्रहण किया जा रहा है। आज रस, वक्रोक्ति, ध्वनि, अलंकार, गुण, रीति औचित्य पर विचार करने की आवश्यकता है। भारतीय काव्यशास्त्र कविता की रस सम्बन्धी अवधारणाओं में प्रायः सभी मीमांसकों की मान्यता एक सी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के 'इंदौर साहित्य सम्मेलन' 1934 के भाषण में कहा था कि "आजकल इस प्रकार के लटके कि रस-अलंकार तो पुरानी चीजें हैं, उनका जमाना गया, इधार उधार से नोंचकर ही दुहराए जाते हैं। वे कहाँ से आए हैं, उनका पूरा मतलब क्या है। यह सब जानने या समझने की जरूरत नहीं समझी जाती है। इन वाक्यों को बात-बात में दुहराने वालों में से अधिकांश तो इतना भी नहीं जानते हैं कि रस-अलंकार आदि हमारे साहित्य के बहुत काल से व्यवहृत शब्द हैं, अँग्रेजी शब्दों के अनुवाद नहीं। इससे नाम लेना फैशन के खिलाफ है।
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