अपने चिन्तन, अन्वेषण एवं गम्भीर अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने काव्य निर्मित के अनिवार्य तत्वों की संकल्पना को जिनमें रस, अलंकार, वक्रोक्ति, औचित्य, रीति ध्वनि तथा गुणों को काव्य का अनिवार्य तत्व माना। जिसके फलस्वरूप काव्यशास्त्र में विभिन्न सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। यद्यपि गुण तत्व से सम्बधित कोई स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित न हो सका तथापि गहन अध्ययन करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि संस्कृत एवं हिन्दी काव्यशास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने काव्य में गुणों की स्थिति को अनिवार्य माना है। इसी उद्देश्य से काव्य में गुणों के समग्र स्वरूप भेदों, उपभेदों काव्यशास्त्र के अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध काव्यात्मा के रूप मे गुण आदि विषयों पर विचार किया गया गया है।
साहित्यशास्त्र के सामान्य परिचय के बाद गुण-तत्व की प्राचीनता तथा उपादेयता को सिद्ध करने हेतु गुण तत्व का ऐतिहासिक विवेचन उद्भव एवं विकास तथा काव्यशास्त्रीय आचायर्यों की दृष्टि में गुण-तत्व का विवेचन किया गया है......
साहित्यशास्त्र में प्रतिपादित अन्य सम्प्रदाय एवं उनकी दृष्टि में गुण-तत्व के महत्व उपयोगिता एवं अपरिहार्यता को प्रतिपादित करना ही चतुर्थ अध्याय का उद्देश्य है। पञ्चम एवं अन्तिम अध्याय में काव्यात्मा का अभिप्रायः काव्य के आत्मरूप गौरवमय पद पर प्रतिष्ठित काव्यशास्त्र के विभिन्न सम्प्रदायों के काव्यात्मा विषयक सिद्धान्तों की समीक्षा एवं गुण-तत्व के काव्यात्मत्व को प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है।
इसी सन्दर्भ में संस्कृत के साथ ही हिन्दी काव्यशास्त्रीय समीक्षकों के विचारों एवं गुण-धारण को भी प्रस्तुत किया गया है।
संस्कृत साहित्यशास्त्र के आरम्भिक काल से अद्यावधि अनवरत प्रवाहित होने वाली काव्य-गुण-मीमांसा का ऐतिहासिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का यह मेरा प्रथम प्रयास है।
जन्म: 1975 पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
शिक्षा: एम० ए० संस्कृत, हिन्दी हे०ने०ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर (उत्तराखण्ड)
पी-एचडी: 2000 हे०ने०ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय
यूजीसी नेट: 1999
शोधपत्र: राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में शोध-पत्र, प्रकाशित
सम्प्रति: हे०ने०ब० गढ़वाल विश्वविद्यालय में अध्यापन में कार्यरत ।
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