अजय नावरिया का यह उपन्यास उधर के लोग भारतीय संस्कृति की विशिष्टता और वैयक्तिक सत्ता के साथ -साथ अंतर्राष्ट्रीय मुद्दो को रेखांकित करता है | बेशक, यह उनका पहला उपन्यास है, लेकिन अपनी शिल्प सरंचना और वैचारिक परिपक्वता में, यह एहसास नहीं होने देता |
उपन्यास में हिन्दू कहे जानेवाले समाज के अंतर्विरोधों, विडम्बनाओं और पारस्परिक द्वेष के अलावा, उसके रीति -रिवाजो का भी सूक्ष्म और यथार्थपरक अंकन किया गया है | यह द्वन्द भी उभरकर आता है की क्या वर्णाश्रम धर्म ही हिन्दू धर्म है या कुछ और भी है ?
उपन्यास, पाठको में प्रश्नाकुलता पैदा करता है की क्या 'जाति' की उपस्थिति के बावजूद 'जातिवाद' से बचा जा सकता है ? क्यों विभिन्न समुदाय, एक-दूसरे के साथ, सह-अस्तित्व के सिद्धांत के तहत नहीं रह सकते ? क्यों भारतीय साहित्य का संघर्ष, डी-क्लास होने के पहले या साथ-साथ डी-कास्ट होने का संघर्ष नहीं बना ? इसके अलावा उपन्यास में बाजार की भयावहता, वेश्यावृति, यौन-विकार, विचारधाराओ की प्रासंगिकता, प्रेम, विवाह और तलाक पर भी खुलकर बात की गई है |
उपन्यासकार की सबसे बड़ी विशेषता यथार्थ को रोचक, प्रभावोत्पादक और समृद्ध भाषा में रूपांतरित करने में है | यह सब उन्होंने नायक की जीवन-कथा के माध्यम से बड़े कुशल ढंग से किया है |
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