योग दर्शन के क्षेत्र में अनेक विवरण ग्रन्थों और समीक्षा साहित्य के होते हुए भी प्रस्तुत ग्रन्थ पातञ्जल योग विमर्श का विशिष्ट महत्त्व है। पतंजलि प्रणीत योग सूत्र के व्यासभाष्य के ऊपर वाचस्पति मिश्रकृत योगतत्त्व वैशारदी और विज्ञानभिक्षुकृत योगवार्तिक टीका को लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की गयी है। व्यासदेव कृत भाष्य के बिना पतञ्जलि के हृदय को समझना असंभव ही था। व्यासभाष्य के कतिपय मन्तव्यों को समझना भी पाठकों के लिए सरल नहीं था। उसको समझने में आचार्य वाचस्पति मिश्र और विज्ञानभिक्षु की टीकाओं ने महनीय योगदान किया। इन दोनों टीकाओं की व्याख्याओं में भी कहीं कहीं मतभेद प्राप्त होता है। उन्हीं मतों की समीक्षा करनें में प्रस्तुत ग्रन्थ कृतकार्य हुआ है। योगदर्शन के शोधार्थियों के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता डॉ० विजयपाल शास्त्री ने गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग में प्रोफेसर पद पर बत्तीस वर्षों तक अध्यापन किया है। विभागीय अध्यक्ष के पद पर तथा प्राच्य विद्या संकाय के डीन पद पर कार्य करते हुए जुलाई 2013 में सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वर्ष 2013 के पश्चात् भी उनकी साहित्य साधना निरन्तर चलती रही। अब तक आपके निम्नलिखित ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं- 1. पातञ्जल योग विमर्श (प्रथम संस्करण 1991), 2. त्रिक दर्शन का समीक्षात्मक तत्त्वमीमांसीय अध्ययन (1995), 3. सांख्ययोग सूक्ति समुच्चय (1999), 4. संस्कृत सूक्ति समुच्चय (2001), 5. गीतार्थसंग्रहः अभिनव गुप्तपादाचार्य कृत गीता भाष्य की विजयिनी हिन्दी व्याख्या (2005), 6. बौद्ध प्रमाण मीमांसा (2005), 7. योग विज्ञान प्रदीपिका (2006), 8. भारतीय भाषा दर्शन (2007). 9. भारतीय सौंदर्य शास्त्र (2017)। शारीरिक क्षमता की क्षीणता के होते हुए भी अभी तक लेखक साहित्य साधना में व्यस्त रहते हैं। स्थायी रूप से हरिद्वार में आवास के साथ साहित्य सृजन में आप अभी भी संलग्न हैं।
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