प्रथम संस्करणका नम्र निवेदन
जानकी मंगलमें जिस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामके साथ जगज्जननी जानकीके मंगलमय विवाहोत्सवका वर्णन है, उसी प्रकार पार्वती मंगलमें प्रात:स्मरणीय गोस्वामीजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है । लक्ष्मी नारायण, सीता राम एवं राधा कृष्ण अथवा रुक्मिणी कृष्णकी भांति ही गौरी शंकर भी हमारे परमाराध्य एवं परम वन्दनीय आदर्श दम्पति हैं । लक्ष्मी, सीता, राधा एवं रुक्मिणीकी भांति ही गिरिराजकिशोरी पार्वती भी अनादि कालसे हमारी पतिव्रताओंके लिये परमादर्श रही हैं; इसीलिये हिंदू कन्याएँ जबसे वे होश सँभालती हैं, तभीसे मनोऽभिलषित वस्की प्राप्तिके लिये गौरीपूजन किया करती हैं । जगज्जननी जानकी तथा रुक्मिणी भी स्वयंवरसे पूर्व गिरिजा पूजनके लिये महलसे बाहर जाती हैं तथा वृषभानुकिशोरी भी अन्य गोप कन्याओंके साथ नन्दकुमारको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये हेमन्त ऋतुमें बड़े सबेरे यमुना स्नान करके वहीं यमुना तटपर एक मासतक भगवती कात्यायनीकी बालुकामयी प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा करती हैं ।
जगदम्बा पार्वतीने भगवान् शंकर जैसे निरन्तर समाधिमें लीन रहनेवाले, परम उदासीन वीतराग शिरोमणिको कान्तरूपमें प्राप्त करनेके लिये कैसी कठोर साधना की, कैसे कैसे क्लेश सहे, किस प्रकार उनके आराध्यदेवने उनके प्रेमकी परीक्षा ली और अन्तमें कैसे उनकी अदम्य निष्ठाकी विजय हुई यह इतिहास एक प्रकाशस्तम्भकी भांति भारतीय बालिकाओंको पातिव्रत्यके कठिन मार्गपर अडिगरूपसे चलनेके लिये प्रबल प्रेरणा और उत्साह देता रहा है और देता रहेगा । परम पूज्य गोस्वामीजीने अपनी अमर लेखनीके द्वारा उनकी तपस्या एवं अनन्य निष्ठाका बड़ा ही हृदयग्राही एवं मनोरम चित्र खींचा है, जो पाश्चात्य शिक्षाके प्रभावसे पाश्चात्य आदर्शोंके पीछे पागल हुई हमारी नवशिक्षिता कुमारियोंके लिये एक मनन करने योग्य सामग्री उपस्थित करता है । रामचरितमानसकी भांति यहों भी शिव बरातके वर्णनमें गोस्वामीजीने हास्यरसका अत्यन्त मधुर पुट दिया है और अन्तमें विवाह एवं विदाईका बड़ा ही मार्मिक एवं रोचक वर्णन करके इस छोटे से काव्यका उपसंहार किया है ।
गोस्वामीजीकी अन्य रचनाओंकी भांति उनकी यह अमर कृति भी काव्य रस एवं भक्ति रससे छलक रही है । इसकी अनुपम माधुरीका आस्वादन करके सभी लोग कृतार्थ हो सकें इसी भावनासे हमारे स्वर्गीय श्रीइन्द्रदेवनारायणजीने इसकी सुन्दर टीका लिखी थी, जो वर्षोंसे अप्रकाशित पड़ी थी । हमारे प्रिय मुनिलालजी (वर्तमान स्वामीजी श्रीसनातनदेवजी) ने बड़े ही प्रेम एवं मनोयोगपूर्वक उसका संशोधन भी कर दिया था; किंतु कई कारणोंसे हमलोग उसे इच्छा रहते भी छाप नहीं पाये थे । भगवान् गौरी शंकरकी महती कृपासे आज हम उसे मूलसहित प्रकाशित कर प्रेमी पाठक पाठिकाओंकी सेवामें प्रस्तुत कर रहे हैं । आशा है, गोस्वामीजीकी अन्य मधुरातिमधुर कृतियोंकी भांति इसे भी जनता आदरपूर्वक अपनायेगी और भगवती उमा एवं भगवान् उमानाथके इस परमपावन मंगलमय चरित्रका अनुशीलन करके अपने अन्तःकरणको पवित्र एवं भक्तिरससे आप्लावित करेगी । अज्ञान अथवा दृष्टिदोषसे मूल अथवा अनुवादमें जहाँ जहाँ भूलें दृष्टिगोचर हों, विज्ञ पाठक उन्हें कृपापूर्वक सुधार लें और हमें भी सूचित कर दें, ताकि उनका अगले संस्करणमें मार्जन किया जा सके ।
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