हाँ, मैं ही मंदोदरी हूँ। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि पृथ्वी के जिस भाग में प्रतिवर्ष बड़े हर्ष के साथ लोकपर्व की भाँति दशहरा मनाकर दसग्रीव की लाखों प्रतिमाएँ जलाई जाती हैं, उसकी धर्मपत्नी मंदोदरी कुछ बोलने की धृष्टता कैसे कर सकती है? यदि मैं बोलूँ भी तो सुनेगा कौन? हाँ, मैं उसी समाज के बीच अपना सौभाग्य और दुर्भाग्य बखान करना चाहती हूँ, जहाँ के विशाल हृदय चिंतकों और व्यथित हृदय के मर्मज्ञ ऋषियों ने सीता, सावित्री, तारा और द्रौपदी जैसी महिलाओं की पंक्ति में बैठाकर पंचकन्याओं की श्रेणी में मुझे भी रखा है।
हाँ, मैं ही दानव मयासुर और स्वर्ग की अप्सरा हेमा (रंभा) की पुत्री हूँ। मेरे दो भाई भी क्रमश मायावी और दुंदुभि थे। मेरे मानस में अपनी माँ की स्मृति बिलकुल धुँधली सी है। पिताजी ने मुझे बताया था कि देवताओं ने मेरे पिता को हेमा नाम की अप्सरा को वैसे ही भेंट किया था जैसे पुलाभदानव की कन्या शचि देवराज इंद्र को दी गई थी। मुझे जन्म देने के बाद मेरी माता स्वर्गलोक चली गई थीं, फिर लौटी नहीं। मेरे पिताजी ने माया से एक नगर का निर्माण किया था, जो पूर्णतः सोने का था। हीरे और नीलम से जड़े होने के कारण वह बहुत भव्य और सुंदर दिखता था। मेरे पिता उस मनोरम भवन को विरह भवन समझकर ही थोड़े दिन उसमें रहते थे। उन्हें अपनी पत्नी से बिछुड़ने का बड़ा दुःख था। वे जंगल-जंगल घूमते रहते। मुझे भी साथ घूमाते।
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