परिवर्तन प्रकृति का आवरण है। मानव समाज की क्रियाएँ भी युगों से परिवर्तित होती चली आ रही है। समाज नर-नारी के परस्पर प्रेम एवं शत्रुता की घटनाओं से भरा पड़ा है। कहीं नर को नारी का अंश स्वीकार किया गया तो स्वयं नारी भी पुरुष के अभाव में दृष्टि की उत्पादकता की कल्पना नहीं कर सकती। भक्ति काल में जब पुरुषों में युगीन सात्विकता थी उस समय नारी के स्वरूप को देवीय पद प्राप्त हुआ कतिपय उस काल में भी कुछ पुरुष ऐसे कामुकता के मुखौटे से उभरे जिन्होंने नारी को मात्र वस्तु करार दिया। कहानी साहित्य की एक विद्या है। कहानी समाज के यथार्थ स्वरूप की उपेक्षा नहीं कर सकती। वस्तुतः कहानीकारों ने समाज में व्याप्त शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक, स्त्री पुरुष, वासनात्मक अनैतिक सम्बन्धों का जो ताना बाना बुना वह युगीन परिस्थितियों का अनुभव जन्य आकलन था।
समाज रूढ़िवादिता को तोड़कर स्वतन्त्र जीवन शैली अपनाने हेतु अग्रसर हुआ। उसने मध्यकालीन युग में विदेशी आक्रान्ताओं से अपनी बहन बेटियों की अस्मत को तार-तार होते देखा। अपनी गाढ़ी खून पसीने की कमाई को लुटते देखा । उस समय भारतीय समाज अपने पूर्वजों द्वारा निर्धारित पद-चिन्हों का अनुसरण करता रहा। परन्तु आधुनिक युग में सम्पूर्ण विश्व तकनीकी विश्व का रूप धारण कर चुका है। नर व नारी ने शर्म व हया के महीन वस्त्र को त्याग दिया। वासना का नंगा-नाच अपने सुखों का आधार बना लिया। नारी ने पुरुष की उस इच्छा का भी विरोध नहीं किया। पुरुष नारी को जिस रूप में देखना चाहता है नारी उसी रूप में उसके सामने प्रस्तुत है। जब नारी पुरुष के संसर्ग से पूर्णता को प्राप्त होती है तो उसका पुरुष से पर्दा कैसा।
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