सच्चे अर्थों में हम अपने आपको तभी लोकतान्त्रिक राज्य कह सकते हैं जब जनता शासन-प्रशासन के कार्यों में अधिक से अधिक हाथ बंटाए और वह अपना दायित्व समझे। लोकतन्त्र का यह स्वप्न तभी पूरा हो सकता है जब राज्य के कार्यों में आम आदमी की हिस्सेदारी और भागीदारी बढ़-चढ़ कर हो। इसका एक महत्वपूर्ण तरीका पंचायती राज है। ये पंचायत ही है जो भारत को वास्तविक लोकतान्त्रिक पहचान देने में अपनी साकार भूमिका निभा रही है। गांधी जी ने जोर देते हुये कहा था कि यदि गांव नष्ट होते हैं तो भारत नष्ट हो जायेगा। अतः हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वाधीनता को साकार व स्थायी बनाने के लिये ग्रामीण शासन व्यवस्था को संविधान में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। ग्रामीण पंचायतें हमारे राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ है; केन्द्र की संसद में चाहे जितना भी बड़ा से बड़ा आदमी बैठे, परन्तु वास्तविकता यह है कि पंचायतों से ही भारत के विकास की चाल बढ़ेगी। स्थानीय सरकार निःसन्देह ही प्रजातान्त्रिक भावनाओं को साकार करने और प्रशासन को विकेन्द्रित बनाने के लिये सर्वोत्तम उपाय है।
पंचायती राज की अवधारणा ग्रामीण भारत की परम्परा और संस्कृति में रची-बसी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आदिकाल से पंच परमेश्वर प्रणाली के द्वारा समस्याओं को हल किया जाता रहा है। गांधी जी ने एक बार अपने वक्तव्य में कहा था, कि यह अत्यन्त आवश्यक है कि स्वतन्त्रता निचले स्तर से प्रारम्भ हो, इसलिये प्रत्येक गांव को आत्म निर्भर होना चाहिये और उसे अपनी समस्याये व न्याय का स्वयं हल निकालने व निपटाने में समर्थ होना चाहिये।
ग्रामीण विकास की अनिवार्य आवश्यकताओं ने ही वर्तमान रूप में पंचायती राज संस्थाओं की उत्पत्ति की थी। समुदायिक विकास कार्यक्रम आरम्भ करते समय पाया गया कि लोगों की सहभागिता के बिना ग्रामीण समुदाय का पुर्ननिर्माण सम्भव नहीं है और यह केवल पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है; जहाँ लोग अपने चुने हुये प्रतिनिधियों के माध्यम से स्थानीय नीतियों का निर्धारण करें और आम जनता की वास्तविक आवश्कताओं का ध्यान रखते हुये उनके अनुसार ही अपने कार्यक्रमों को लागू करें। अतः पंचायती राज की संस्थाओं के माध्यम से स्थानीय लोग न केवल नीतियों का निर्धारण करते हैं बल्कि उसके क्रियान्वयन तथा प्रशासन का नियन्त्रण एवं मार्गदर्शन भी करते हैं।
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