पुस्तक के विषय में
१९४० ई० के आप्त-पास की, लाहौर की घटना है । एक प्रात: उठे तो किसी ने कु-समाचार सुनाया कि मुरारिशाह1 मारे गये । किसी भी मनुष्य की हत्या के समाचार को हम सब स्वभावत: सावधानी से सुनते हैं । मानवीय नाते से सजातीय जो हुआ। कारण जान कर कलेजा काँप उठा। आप भी दिल सँभाल कर सुनियेगा ।
हमारे घर से लगभग दो फर्लांग पश्चिम में दो-राहे के मोड़ पर एक खुले प्लाट में, उनका इंधन का टाल था । उसी के उत्तरी भाग में एक कोठरी में शाह जी अकेले ही रहते थे । एक दिन दो व्यक्तियों ने आ कर शाह जी से प्लाट का एक भाग, ढाबा (सस्ता देशी होटल) लगाने के लिए, किराये पर ले लिया । कुछ समय सुख-पूर्वक व्यतीत हुआ ।
एक दिन किसी सज्जन ने आ कर कुछ सौ रुपये (जो आज कल के सहस्त्रों के समान थे) शाह जी को दिये । शाह जी ने राशि सँदूकची में रख ली और रात को कोठरी अंदर से बंद कर सो गये । इस बात को ढाबे वालों ने देख लिया । मनुष्य का मन बदलते कौन युग लगते हैं । उन्होंने शाह जो का काम तमाम कर स्वयं शाह ( सेठ) बनने की ठानी । सर्दियों की आधी रात, धुप अँधेरा, एक दम सन्नाटा । शाह जी का द्वार खुलवाया, गला दबाया ओर संदूक का सफाया कर दिया । शव को खण्ड-खण्ड कर कुछ खण्ड तनूर में झोंक दिये, कुछ शाह जी के डाल की लकड़ियों के नीचे दफना दिये और ऊपर लड़कियाँ ज्यों-की-त्यों चिन दीं;
दो एक दिन जब शाह जी दिखाई न दिये तो उनके सम्बन्धियों को चिन्ता हुई । पूछने पर ढाबे वालों ने बताया कि तीर्थ पर जाने की बात कहते थे । दो-तीन दिन बाद हरिद्वार से पत्र आया कि मैं सकुशल हूँ तथा शीघ्र ही लौट आऊँगा । परन्तु लौटते तो तब, जब जीवित होते । पत्र तो बनावटी था और सम्बन्धियों को आश्वासन देने के लिए ढाबे वालों द्वारा लिखवाया गया था तो रहस्य कैसे खुला, यह भी इन लीजिये!
ढाबे वालों ने बर्तन मौजने के लिए एक नौकर रखा हुआ था शाह जी को राशि का कुछ अंश उसे भी रिश्वत के रूप में दिया गया था कि बात को दिल ही में रखे कुछ दिन बाद नौकर ने मिल गांव जा कर रुपये स्वपिता की मुट्टी में और रह्स्य कानों में डाल दिया भावी भय की आशंका से भोले पिता ने, पुत्र के बचाव के लिए, प्राप्त राशि का कुछ अश गाँव के चौकीदार को देना चाहा चौकीदार पैसे का पोर नहीं, सरकार का वफादार निकला उसने पुलिस को सूचित कर दिया और पुलिस ने लकड़ियों के नीचे गाड़े हुए शव खंड बरामद हर हत्यारों को प्राणदंड दिलवाया इस प्रकार हो व्यक्तियों के लोभ से तीन व्यक्तियों की जान गई और अनेक सम्बन्धियों की सुख-शान्ति आप कह सकते हैं-''स्वराज्य प्राप्ति से पूर्व स्वदेश परतन्त्र था, दरिद्रता का बोल बाला था, अतः उक्त प्रकार की धटनाएं होती थीं, तो आश्चर्य क्या? आल हम स्वाधीन है तथा किसी भी युग की अपेक्षा अधिक समृद्ध है दरिद्रता पाप करवाती है, वैभव में मनुष्य भगवान् का भजन करता है, पापों का भंजन करता हे इसलिए आज वैसी घटनाएँ नहीं होता ।''
यदि आप के विचार वस्तुत: ऐसे हों तो खेद है कि हम आप से सहमत नहीं है हमारे कथन की सत्यता आप को तब विदित होगी, जब आप किसी सुप्रसिद्ध दैनिक-पत्र की, किसी भो एकाघ मास की फाइल उठा कर ध्यान से पढ़े आप को विश्वास हो जायगा कि आर्थिक रूप से चाहे हमारा कुछ उत्थान हुआ हो, परंतु चारित्रक रूप से घोर पतन ही हुआ है चोरी, डाका, लूट- मार, जेब-तराशी आदि घटनायों की कोई सीमा मते रही बडे-बड़े मंत्री, राज- नीतिक नेता, विधायक, अधिकारी सेठ साहुकार आदि ऐसे-ऐसे हथकंडों से लखपति वा करोडपति बनते हैं कि जिनके विवरण के अध्ययन से रोमांच हो उठता है ।' कहीं सार्वजनिक भूमि हड़प सी जाती है, कहीं धनिकों के बच्चों का अपहर कर भारी फिरौतियाँ माँगी जाती हैं, कहीं खाद्य-पदार्थों में स्वास्थ्य- नाशक द्रव्यों के मिश्रण से अधिक धन बटोरा जाता है; कहीं आवश्यक वस्तुओं को, भारी लाभ कमाने के लिए, छिपा कर संचित कर लिया जाता है; और कहीं लाभकारी औषधों के स्थान पर नकली दवायें बना कर बेचारे बीमारों को अकाल-मृत्यु का ग्रास बना दिया जाता है राजकीय कार्यालयों में जाओ तो पैसे व परिचय के बिना कोई काम नहीं होता जो फाइलें वर्षो तक पंगु बनी पडी रहती हैं, बही पैसों के पहिए लगने पर तुरंत प्रगति करने लगती हैं कुछ मास पूर्व एक विदेशी पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ था कि भारत में रिश्वत के बिना कोई भी काम सम्भव नहीं है, स्कूलों में प्रवेश तथा रेलों में सीटों के रक्षण तक के लिए भी घूँस देना पडता है चले की बात तो यह कि किसी भी सरकारी कर्मचारी सघ ने उस पत्रिका के विरोध में जबाँ तब नहीं हिलाई, लेखनी तक नहीं उठाई मानो सबने सिर झुका कर स्वीकार कर लिया कि आरोप सर्वथा सत्य हैं, प्रतिवाद करना व्यर्थ है।
ऐसी दयनीय दशा देख किस देश प्रेमी का दिल दो-टूक न होता होगा? गाँधी जी होते तो कदाचित् लब। अनशन करते, परन्तु हम क्या कर सकते हैं? इस समस्या का समाधान क्या है, इस रोग का उपचार क्या है? यदि इसे बढ़ने दिया गया तथा कोई भी उपचार न शिवा गया तो दुख निरन्तर बढ़ते जायँगे और देश पुनः पराधीन हो जायगा शारीरिक रोग औषध-उपचार से दूर होते हैं तथा मानस रोग विचार सुधार से लोभ निस्सन्देह मानस रोग है, अत: इस के उन्मूलन के लिए इसके स्वरूप, कारण, परिणाम, विजयोपाय आदि का कुछ विस्तृत विवेचन आवश्यक था और वही हमने किया अन्तिम अध्याय में लने उन अनेक लोगों के विवरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्होंने भारी प्रलोभनों के बावजूद अपने चरित्र की रक्षा की प्रथम परिशिष्ट में हमने ससार के प्राय: सभी जीवन्त धर्मों के समान्य पंथों के मर्मस्पर्शी उद्धरण तथा देश विदेश के विद्वानों व महात्माओं को लोभ-सम्बन्धी सूक्तियां भी संकलित की हैं, ताकि पाठक उनके अध्ययन व मनन से पवित्र प्रेरणाएँ प्रास कर सकें द्वितीय परिशिष्ट में सहायक- ग्रन्थों की सूचियाँ बी गई हैं, जो इस विषय का गहन अध्ययन करने वालो के लिए उपयोगी हैं।
हमारा विश्वास है कि काल्पनिक दृष्टान्तों की अपेक्षा सत्य घटनाएँ पढ़ने- सुनने वाले पर अधिक प्रभाव डालती हैं। इसीलिए हमने विवेच्य विषय को सुस्पष्ट करने के लिए प्राया वास्तविक घटनाओं का ही उल्लेख किया है घटना- सम्बन्धी नाम व स्थान प्राय: परिवर्तित कर दिये हैं ताकि किसी को वास्तविक अपराधी के नाम-धाम का पता न चले ही, लोभविजयी लोगों के नाम-धाम यथार्थ ही लिखे है ताकि हम लोग भी उनके चरण-चिह्नों पर चलकर, भ्रष्टाचार से दूर रह कर, स्वजीवन को सज्जनता व पवित्रता से व्यतीत कर सके यहाँ महर्षि वेदव्यास जा चेतावनी प्रस्तुत करना उचित प्रतीत-होता हें-
सर्व धनवता प्राप्य, सर्वं तरति कोषवान्
तच्च धर्मेण लिप्सेन, नाघर्मेण कदाचन ।।
(सक्षिप्त महाभारत,पृ० 449)
अर्थात्, ''धनवान् सब कुछ प्राप्त कर सकता है धनवान् सब कठिनाइयाँ तर जाता है, परन्तु धन धर्म से ही पाने की इच्छा करनी चाहिए, अधर्म से कभी नहीं ।''
प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में जिन लेखको व प्रकाशकों की पुस्तकों से सहायता ली गई है, उमके प्रति हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं साथ ही हम आभारी होंगे उन विद्वज्जनों के जो इसके अध्ययन के पश्रात् इसे अधिकाधिक लोकोपयोगी बनाने के लिए अमूल्य सुझाव भेजेंगे
अन्त में हम प्रभु से सविनय प्रार्थना करते है कि जिस सद्भावना से प्रेरित होकर हमने यह पुस्तक लिखी है, वह पूर्ण हो यदि इसके पठन व मनन से पाठकों को लोभ-विजय मे कुछ भी सहायता मिली, तो हम अपना प्रयास सफल समझेंगे।
विषय-सूची
1
लोभ का स्वरूप और प्रकार
2
लोभ के कारण
12
3
लोभ के परिणाम (1)
25
4
लोभ के परिणाम (2)
38
5
लोभ-विजय के उपाय (1)
54
6
लोभ-विजय के उपाय (2)
76
7
लोभ-विजयी व्यक्ति
100
प्रथम परिशिष्ट-लोभ विषयक सूक्तियाँ
120
द्वितीय परिशिष्ट-साहयक ग्रन्थ-सूची
131
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