पुस्तक के विषय में
मनुष्य साधारणत: आदत में जीता है और आदत को तोड़ना कठिनाई मालूम पड़ती है। हमारी भी सब आदतें हैं, जो ध्यान में बाधा बनती हैं। ध्यान में और कोई बाधा नहीं है, सिर्फ हमारी आदतों के अतिरिक्त। अगर हम अपनी आदतों को समझ लें और उनसे मुक्त होने का थोड़ा सा भी प्रयास करें तो ध्यान में ऐसे गति हो जाती है, इतनी सरलता से जैसे झरने के ऊपर से कोई पत्थर हटा ले और झरना बह जाए। जैसे कोई पत्थर को टकरा दे और आग जल जाए। इतनी हीसरलता से ध्यान में प्रवेश हो जाता है। लेकिन हमारी आदतें प्रतिकूल हैं।...
हमारी एक आदत है सदा कुछ न कुछ करते रहने की। ध्यान में इससे खतरनाक और विपरीत कोई आदत नहीं हो सकती है। ध्यान है न करना। ध्यान है नॉन-डूइंग। ध्यान है कुछ भी न करना।
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय बिन्दु:-
खाली होने की कला ही ध्यान है
धर्म क्रांति है, धर्म विकास नहीं है
क्या है धारणाओं से मुक्ति के उपाय?
संकल्प उन्हें उपलब्ध होता है, जो विकल्प से मुक्त हो जाते हैं
सारी दुनिया का एक ही कष्ट है, आदमियत की एक ही उलझन है—चाहे वह पति की हो, चाहे पत्नी की, चाहे मां की चाहे बेटे की चाहे दो मित्रों की; जिंदगी का एक ही उलझाव है कि हम सब पीछे रुक जाते हैं। आगे हम जाते ही नहीं! कोई कहीं रुक जाता है,कोई कहीं रुक जाता है, कोई कहीं रुक जाता है जहां हम हैं। हम बहुत पहले कहीं रुक गए हैं। और जहां हम रुक गए हैं, वहीं कठिनाई शुरू हो गई है। हमें होना चाहिए वहां, जहां हम हैं। फिर ध्यान में बाधा नहीं होती।
हमें होना चाहिए दर्पण की भांति असंग, चीजें बनें और मिट जांए। असंग। असंग का मतलब अनासक्ति मत समझ लेना। असंग का अर्थ अनअटैच्ड नहीं है। असंग का अर्थ असंग का अर्थ बहुत अदभुत है।
असंग का अर्थ हऐं पूरी तरह जुड़े हुए और फिर भी नहीं जुड़े हुए। जब किसी को प्रेम करें तो पूरा प्रेम करना, उस क्षण में वही रह जाए, जिसे प्रेम किया है। और जितना प्रेम कर सकें, पूरा कर लेना, टोटल, क्योंकि जितना पूरा हो सकेगा उतना ही मुक्त हो सकेंगे। जितना अधूरा हो जाएगा, उतना ही अटका रह जाएगा। उतना पीछा करेगा। फिर लौट लौट कर पीछे की याद आएगी: उसे और प्रेम कर लेते, और प्रेम दे देते, और प्रेम ले लेते। पूरा कर लेना जब प्रेम करें-प्रेम के क्षण में । और फिर पार हो जाना, क्योंकि जिंदगी कहीं नहीं रुकती। सब चीजें पार हो जाती हैं। फिर जब दुबारा वह सामने आ जाए तो फिर प्रेम जग जाएगा और वह विदा हो जाएगा। तो मन खाली हो जाएगा और दर्पण बन जाएगा। मन रोज-रोज खाली हो जाए और दर्पण बन जाए तो आदमी ने पा लिया जिंदगी का राज, पा लिया उसने परमात्मा का राज।
प्रवेश के पूर्व
आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है । और जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि हम प्रकृति के एक हिस्से है, वह इसी वक्त ध्यान में जा सकता है-इसी क्षण । क्योकि तब यह खयाल मिट गया है कि कुछ हमें करना है । तब चीजे होंगी । ध्यान आएगा, आप ला नहीं सकते है । और ध्यान आए, और उस द्वार से आप चूक न जाएं तो उसके लिए कुछ स्मरण रख लेना है । पहला : यह कर्तृत्व का, करने का, डूअर का खयाल बिलकुल जाने दे । अगर कभी ध्यान की दुनिया में प्रवेश करना है, तो मैं कुछ कर सकता हूं यह खयाल जाने दें । इन तीन दिनों में स्मरण रखें । और बहुत अदभुत अनुभव होंगे । अगर चलते वक्त आपको यह खयाल आ जाए कि मै चल नहीं रहा हूं यह चलने की क्रिया उसी तरह हो रही है जैसे चांद चल रहा है, पृथ्वी चल रही है, तारे चल रहे हैं । ठीक यह उसी तरह चलने की क्रिया हो रही है ।
यह मैं चल नहीं रहा हूं । यह सारा का सारा जगत जैसे चल रहा है, उसी चलने में मेरा चलना भी एक हिस्सा है । तो आप एकदम चौक कर, कुछ नया ही अनुभव करेंगे, जो आपने कभी अनुभव नहीं किया था । आप पहली दफा पाएंगे कि यह तो कुछ और ही बात हो गई-कोई दूसरा आदमी खड़ा है, आप नहीं है । खाना खाते वक्त खाने की क्रिया हो रही हे, स्नान करते वक्त स्नान की क्रिया हो रही है । चीजें हो रही हैं, आप कुछ भी नही कर रहे हैं ।अनायास एक गहरी शांति चारो तरफ घेर लेगी, भीतर एक सन्नाटा छा जाएगा । और इन तीन दिनों में कोई कारण नहीं है कि जिस द्वार से हम आमतौर से बच कर निकल जाते हैं, उस द्वार पर हम रुक जाएं । वह द्वार हमें दिख जाए, हम बाहर हो जाएंगे । यह हो सकता है, यह हुआ है, यह किसी को भी हो सकता है । और इसके लिए कोई विशेष पात्रता नहीं चाहिए । इसके लिए कोई विशेष पात्रता नहीं चाहिए! बस एक मिटने की पात्रता चाहिए । वह जो होने का खयाल बहुत ज्यादा है कि ‘मै’ हूं । वही बाधा डालता है और कोई बाधा नहीं डालता है । न कोई पाप रोकता है किसी को, न कोई पुण्य किसी को पहुंचाता है ।
पाप भी रोकता है, क्योंकि पापी का खयाल है कि मैं कर रहा हूं । और पुण्य भी रोकता है, क्योकि पुण्यात्मा का खयाल है कि मैं कर रहा हू । अगर पापी का यह खयाल मिट जाए कि मैने किया और पापी भी अगर यह जान ले कि हुआ तो पापी भी इसी वक्त पहुच जाएगा-इसी क्षण । और पुण्यात्मा को अगर पता चल जाए कि हुआ, तो पुण्यात्मा भी इसी क्षण पहुच जाएगा ।
न पाप रोकता है, न पुण्य पहुचाता है । ‘मैं कर रहा हूं’-यह अस्मिता, यह अहंकार भर रोकता है । पापा को भा यही रोकता है, पुण्यात्मा को भी यही रोकता है । वह कर्तृत्व का खयाल रोकता है । और हम कर्तृत्व के खयाल से इतने भरे है कि हमें लगता है कि अगर हम थोडी देर कुछ न करेगे तो मिट ही न जाएगे, मर ही न जाएगे, वेजिटेट न करने लगेगे अगर हम कुछ न करेगे थोडी देर ।
लेकिन बिना कुछ किए कितना बडा ससार चल रहा है, बिना कुछ किए कितना विराट आयोजन चल रहा है । बिना कुछ खबर दिए, बिना कोई इशारा किए कितने तारे चल रहे है कितनी पृथ्विया होगी तारो में, कितना जीवन होगा-अंतहीन है कुछ पता नहीं । इतना सब चल रहा है बिना किसी के कुछ किए।
अगर भगवान कुछ करता तो भूल चूकें भी होतीं । करने में भूल-चूके होती हैं । कभी भगवान की नींद भी लग जाती, दो तारे टकरा जाते, कभी गलत सूचना मिल जाती, डिरेलमेंट हो जाता, न मालूम क्या-क्या होता! लेकिन भगवान कुछ नहीं कर रहा, इसलिए कोई गलती नही होती । न-करने में गलती हो कैसे सकती है चीजे हो रही है, चीजो का एक सहज स्वभाव है, उससे हो रही है ।
धर्म का अर्थ है स्वभाव । और स्वभाव का अर्थ है जो होता है, किया नही जाता । ध्यान स्वभाव में ले जाने का द्वार है । और इसलिए ध्यान, करने से नही होता है । इसलिए जहा-जहा लोग सिखाते है कि माला फेरो, ध्यान हो जाएगा, राम-राम जपो, ध्यान हो जाएगा, ओम जपो, ध्यान हो जाएगा, गायत्री पढ़ो, ध्यान हो शाएगा-उन्हें किसी को भी कुछ पता नहीं कि ध्यान का मतलब क्या है ।
ध्यान कुछ भी करने से नहीं होता । ध्यान न-करने से होता है । कुछ न करो और ध्यान हो जाएगा ।कुछ कर रहे है हम, इसलिए ध्यान नही हो पा रहा है। कुछ कर रहे है और उस करने में उलझे है, इसलिए ध्यान नहीं हो पा रहा है ।
अनुक्रम
1
विरामहीन अंतर्यात्रा
001
2
चैतन्य का द्वार
023
3
विपरीत ध्रुवों का समन्वय संगीत
045
4
अपना-अपना अंधेरा
071
5
धारणाओं की आग
093
6
अंधे मन का ज्वर
119
7
संकल्पों के बाहर
141
8
ओशो एक परिचय
163
9
ओशो इंटरनेशनल मेंडिटेशन रिजॉर्ट
164
10
ओशो का हिंदी साहित्य
166
11
अधिक जानकारी के लिए
171
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