सहादत हसन मंटो का एक अप्रकाशित उपन्यास लखनऊ में एक लेखक के हाथ लगता है ! उर्दू उपन्यास के बँगला में अनुवाद के लिए वह लेखक कोलकाता लौटकर तबस्सुम नाम की एक ख़वातीन की मदद लेता लेता है! तबस्सुम लेखक के लिए उपन्यास का अनुवाद करती जाती है, और कहानी परत-दर -परत खुलती जाती है! दोजखनमा ग़ालिब और मंटो की बेहतरीन जीवनी भी है और अपनी-अपनी कब्रों में लेटे मंटो और ग़ालिब के बीच की बेबाक बातचीत भी, जिन्होनें ज़िन्दगी को वैसे तो एक सदी के फासले पर जिया, लेकिन जिनके टूटे हुए ख़्वाबों और वक़्त के हाथ मिली शिकस्त की शक्लें एक सी थीं! इस उपन्यास में ग़ालिब के अलावा मीर तक़ी मीर और ज़ोक जैसे शायरों के मशहूर शेर है तो मंटो के कालजयीं फ़साने भी ! साथ ही उन गुज़रे हुए ज़मानों की अद्भुत कहानियाँ भी !
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