प्रेमचंद के उपन्यासों का विपुल परिमाण जिन कला-समस्याओं को प्रस्तावित करता है वे एक रचनाकार की विशिष्ट समस्या से अधिक एक ऐतिहासिक युग की प्रकृति को अधिक व्यक्त करती हैं। मसलन कथानक और चरित्र के स्वरूप की सामान्य समस्याएँ । कथानक घटनाओं की श्रृंखला है अथवा घटनाओं में निहित पहलुओं का श्रृम संगठन; चरित्र कार्यो के कर्त्ता मात्र हैं अथवा संस्कारों, प्रत्यक्ष परिस्थिति के दबावों तथा मनोभावों के संघात ? ये समस्याएँ 'सेवासदन' के प्रकाशन से पूर्व उठी ही नहीं हैं। यानी 'सेवासदन' हिंदी उपन्यास के विकास में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक बिन्दु पर स्थित है। सबसे पहले 'सेवासदन' मे ही उपन्यास के रूप और गठन सम्बन्धी समस्याओं का सामना करते हुए पाठक अपनी पाठ चेतना को जीवनानुभवों की कटराहट से प्रखर परिवर्तित और परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस करता है|
... यही नहीं आज भी उपन्यास सम्बन्धी कला-समस्याओं का सामना करने के लिए प्रेमचन्द का साहित्य अधिक सार्थक बिन्दु की प्रस्तावना करता है। प्रेमचंद ने उपन्यास के रूप-गठन सम्बंधी समस्याओं को हल किया था और शिल्प, तकनीक, सुक्ष्म चित्रण आदि को उसी के मातहत अतिरिक्त कला समृद्धि के रूप में स्वीकार किया था। रूप और गठन ऐतिहासिक वास्तविकता की अनिवार्य उपज होते हैं जबकि डिजाइन और तकनीक वैयक्तिक भूमिका में होकर रूप और गठन के ऐतिहासिक ढांचे को विविधता और समृद्धि प्रदान करते हैं। रूप और वस्तु अनवार्यतः द्वन्द्वात्मक रिश्ते में होने के कारण एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं हो सकते किंतु तकनीकी कौशल यदि कड़ाई से इस द्वन्द्वात्मक रिश्ते के मातहत नियोजित नहीं किये जाते तो बहुत कुछ स्वतंत्र हैसियत अख्तियार कर लेते हैं और रूप तथा वस्तु के ऐतिहासिक स्वरूप का अनैतिहासीकरण करते हुए उनकी समस्याओं को निरर्थक कर देते हैं।
डॉ. नित्यानंद तिवारी
जन्म: 8 अप्रैल, 1938 को डेहमा, गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)। शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। वहीं से 1964 में 'मध्ययुगीन रोमांचक आख्यान' पर डी. फिल. की उपाधि । 1965 से 2005 तक हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन। वहीं से प्रोफेसर और अध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त । 'आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध' 'सृजनशीलता का संकट' 'प्रसंग और आलोचना', 'मध्यकालीन साहित्य : पुनरवलोकन' प्रमुख पुस्तके प्रकाशित। नये साहित्य के आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी और उसके प्रमुख सिद्धांतकारों में। 'परियल' से साहित्य-यात्रा का आरंभ । साहित्य अकादमी (केन्द्रीय), हिन्दी अकादेमी (दिल्ली) की संचालन समिति और भारतीय ज्ञापनीठ पुरस्कार की निर्णायक समिति (प्रवर परिषद्) के पूर्व सदस्य ।
प्रेम तिवारी: दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। इन्होंने 'बनारस का साहित्यिक इतिहास' विषय पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से पीएच. डी. किया है। जनवादी लेखक संघ, दिल्ली राज्य के सचिव एवं हिंदी विकास संस्थान, दिल्ली के उपाध्यक्ष हैं। समकालीन कथा-साहित्य में गहरी रुचि के साथ सामाजिक-राजनीतिक जन-आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं। कथा-साहित्य पर इनके आलोचनात्मक आलेख 'आलोचना', 'परिकथा', 'आजकल', 'नायपथ', 'उद्भावना', 'पक्षघर', 'समय के साखी', 'सृजन सरोकार', 'नई धारा', 'अनभै साँचा', 'साक्षात्कार', आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं।
हिंदी कथा-साहित्य को सौ से अधिक साल हो गए हैं। इन वर्षों में हजारों कहानियाँ और हजार से अधिक उपन्यास लिखे जा चुके हैं। और अब भी लिखे जा रहे हैं। इन कहानी-उपन्यासों में अब तक कुछ पर ही आलोचकों समीक्षकों ने विचार किया है। बहुत सी रचनाएँ छूट गई हैं। कुछ तो ऐसी हैं जिन्हें योग्य पाठक अब तक नहीं मिले हैं। कथा-साहित्य के इस विशाल भंडार का मूल्यांकन-विश्लेषण एक कठिन कार्य है। हिंदी आलोचना का भी ध्यान इस ओर देर से गया। इसलिए इसका कोई आलोचना-शास्त्र विकसित नहीं हो सका। जिन आलोचकों ने इस पर थोड़ा-बहुत विचार किया है उससे कथा साहित्य के शिल्प, शैली, संरचना और अंतर्वस्तु को ठीक-ठीक समझने में बहुत थोड़ी ही मदद मिलती है।
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