लेखक परिचय
जन्म 1930, आन्ध्र प्रदेश। पूर्व निदेशक (भाषाएँ) संघ लोक सेवा आयोग, नई दिल्ली तथा भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता । पूर्व कार्यकारी निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली । संप्रति स्वतंत्र लेखन।
आन्ध्र प्रदेश में प्रथम व्यक्ति जिन्होंने हिन्दी में, नागपुर विश्वविद्यालय से 1957 में डॉक्ट्रेट किया । भाषा और साहित्य की सेवा के लिए आन्ध्र प्रदेश, बिहार और भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित । शैक्षणिक प्रशासक और विभिन्न साहित्यिक संस्थानों के तकनीकी परामर्शदाता और मानद सदस्य । प्रकाशन हिन्दी, तेलुगु और अँग्रेजी में तुलनात्मक साहित्य, भारतीय दर्शन और साहित्यिक आदान प्रदान से संबंधित लगभग 50 रचनाएँ ।
रामायण केवल राम की कहानी नहीं है, वह राम का अयन है केवल राम का नहीं, बल्कि रामा (सीता) का भी । दोनों का समन्वित अयन ही रामायण है । राम और रामा में रमणीयता है तो अयन में गतिशीलता है । इसीलिए रामायण की रमणीयता गतिशील है । वह तमसा नदी के स्वच्छ जल की तरह प्रसन्न और रमणीय भी है और क्रौंच मिथुन के क्रंदन की तरह करुणाकलित भी है । राम प्रेम के प्रतीक हैं तो सीता करुणा की मूर्ति हैं। मानव जीवन के इन दोनों मूल्यों को आधार बनाकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की है जिसमें पृथ्वी और आकाश, गंध और माधुर्य तथा सत्य और सौंदर्य का मंजुल सामंजस्य कथा को अयन का गौरव प्रदान करता है । जीवन की पुकार रामायण की जीव नाडी हे । जीना और जीने देना रामायणीय संस्कृति का मूल मंत्र है और इसी में रामकथा भारती की लोकप्रियता का रहस्य है ।
भारतीय जनजीवन में ही नहीं, बल्कि विश्व संस्कृति में भी वाल्मीकि की इस अमर कृति का विशिष्ट स्थान है । जीवन के हर प्रसंग में रामायण की याद आती है और हर व्यक्ति की जीवनी राम कहानी सी लगती है । समता, ममता और समरसता पर आधारित मानव जीवन की इसी मधुर मनोहारिता का मार्मिक चित्रण ही आर्ष कवि की अनर्घ सृष्टि का बीज है । यही बीज रामायण के विविध प्रसंगों में क्रमश पल्लवित होकर अंत में रामराज्य के शुभोदय में सुंदर पारिजात के रूप में विकसित होता है । यही रामायण का परमार्थ है, रामकथा नवनीत है और यही है आदिकवि का आत्मदर्शन ।
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