आवश्यक शिक्षा
मनुष्यमात्र वास्तवमें विद्यार्थी ही है । देवता, यक्ष, राक्षस, पशु, पक्षी आदि जितनी स्थावर जंगम योनियाँ हैं, वे सब भोगयोनियाँ है । उनमें मनुष्ययोनि केवल ब्रह्मविद्या प्राप्त करनेके लिये है, अविद्या और भोग प्राप्त करनेके लिये नहीं ।
मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है अत परमात्मप्राप्ति कर लेना ही वास्तवमें मनुष्यता है । इसलिये मनुष्ययोनि वास्तवमें साधनयोनि ही है । मनुष्ययोनिमें जो अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, यदि उनमें मनुष्य मुखी दु खी होता है तो वह भोगयोनि ही हुई और भोग भोगनेके लिये वह नये कर्म करता है तो भी उसमें भोगयोनिकी ही मुख्यता रही । अत अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितिको साधन सामग्री बना लेना और भोग भोगने तथा स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके उद्देश्यसे नये कर्म न करना, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके लिये शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार कर्तव्यकर्म करना ही मनुष्यता है इस दृष्टिसे मनुष्यमात्रको साधक, विद्यार्थी कह सकते हैं । मनुष्य जीवनमें आश्रमोंके चार विभाग किये गये हैं ब्रह्मचार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास । जैसे, सौ वर्षकी आयुमें पचीस वर्षतक ब्रह्मचर्याश्रम, पचीससे पचास वर्षतक गृहस्थाश्रम, पचाससे पचहत्तर वर्षतक वानप्रस्थाश्रम और पचहत्तरसे सौ वर्षतक संन्यासाश्रम बताया गया है। ब्रह्मचर्याश्रम (विद्यार्थी जीवन) में गुरु आज्ञाका पालन, गृहस्थाश्रममें अतिथि सत्कार, वानप्रस्थाश्रममें तपस्या और संन्यासाश्रममें ब्रह्माचिन्तन करना मुख्य है।
विषय सूची
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सन्तानका कर्तव्य
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आहार शुद्धि
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