संख्या और रूप की विविधता की दृष्टि से रवीन्द्रनाथ के नाटकों की संख्या कम नहीं है। संख्या और श्रेणी-वैचित्र्य के मापदण्ड के आधार पर विचार करने से उनके काव्य के उपरान्त ही नाटकों को स्थान देना पड़ता है। उनकी नाटक-रचना के धारावाहिक इतिहास का अनुसरण करने पर हम देखते हैं कि किशोरावस्था से ले कर जीवन के आखिरी दिन तक नाटक-रचना तथा नाटक-प्रयोजना में उनका उत्साह बरावर बना रहा। रचना से पहले की चीज़ है प्रयोजना तथा अभिनय । रवीन्द्रनाथ के नाटक लिखना प्रारम्भ करने से पहले उनके अन्यतम अग्रज ज्योतिरिन्द्रनाथ ठाकुर ने नाटक लिखना प्रारम्भ कर दिया था। घर में उन नाटकों का बीच-बीच में अभिनय भी' चलता रहा; घर से बाहर पेशेवर रंगमंच पर अभिनीत उनके नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ चली। और उनसे भी पहले रवीन्द्रनाथ के ताऊजी के बड़े लड़के गणेन्द्रनाथ, गुणेन्द्रनाथ आदि नाटक-प्रेमी रामनारायण से नाटक लिखवा कर बड़े प्रेम से घर में उनका अभिनय करवा रहे थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक रवीन्द्रनाथ नाटक- रचना तथा प्रयोजना के वातावरण के बीच पले हैं। साहित्य के विषय में सचेतन इस प्रकार का यह बालक पहले दर्शक के रूप में, फिर अभिनेता के रूप में और अन्त में लेखक के रूप में नाटक की ओर आकृष्ट होगा यह सहज ही समझ में आ जाता है। हुआ भी यही। केवलमात्र दर्शक की भूमिका जब खतम हो गई, तब ज्योतिरिन्द्रनाथ के नाटकों में दो-एक गीत, दो-एक संवाद जोड़ना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया; उन्हींके नाटकों में भूमिका ग्रहण कर वे दर्शकों के सम्मुख आत्मप्रकाश करने लगे । 'जीवनस्मृति' ग्रंथ में इन सब विवरणों का आभास मिलता है। किन्तु इसी बीच अर्थात् इस वातावरण की प्रेरणा से वे कब प्रथम बार नाटक-रचना में प्रवृत्त हुए यह बात जानने का कौतूहल बहुत ही स्वाभाविक है। 'जीवनस्मृति' से ज्ञात होता है कि शान्तिनिकेतन की धूप से अभिषिक्त मैदान में बैठ कर बालक कवि ने 'पृथ्वीराज पराजय' नामक एक रौद्र रसात्मक नाटक लिखा था। यह नाटक बाद में उपलब्ध नहीं रहा। रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभातकुमार मुखोपाध्याय का अनुमान है कि परवर्ती युग में रचित 'रुद्रचण्ड' नाटक 'पृथ्वीराज पराजय' का रूपान्तर मात्र है। इस लुप्त उदाहरण को छोड़ देने पर 'वाल्मीकिप्रतिभा' नामक गीतिनाट्य को उनकी प्रथम नाटक-रचना की प्रचेष्टा कहा जा सकता है। पहले जिस घरेलू वातावरण का उल्लेख किया गया है 'वाल्मीकिप्रतिभा' के साथ उसका संबंध है। विद्वज्जनसमागम नाम की एक सभा बीच-बीच में जोड़ासाँको की ठाकुर-हवेली में बैठती थी। उसी सभा के मनोरंजन के हेतु इस चिर-सरस गीतिनाट्य की रचना हुई थी। रवीन्द्रनाथ के इसके प्रधान कारीगर होने पर भी बिहारीलाल, ज्योतिरिन्द्रनाथ, तथा अक्षय चौधुरी के हाथ का काम इस रचना में मिल जाता है। उस समय के लिखे हुए अधिकांश नाट्यकारों के अधिकांश नाटक कब के सूख कर रसविहीन हो विदा ले चुके हैं, किन्तु बीस साल के युवक द्वारा रचित यह नाटक अब भी अम्लान है। जब भी इसका अभिनय होता है दर्शकों की कमी नहीं होती।
मधुसूदन दत्त ने प्रथम बँगला काव्य की रचना कर अपने को लिखा था कि शेर ने रक्त का स्वाद पा लिया है- अब भला गरा कहाँ ? प्रथम नाटक की रचना के बाद रवीन्द्रनाथ की त्यति भी कुछ इसी प्रकार की हुई। कुछ ही वर्षों के भीतर 'रुद्रचण्ड', 'कालमृगया', 'प्रकृतिर प्रतिशोध', 'नलिनी' एवं 'मायार खेला' उन्होंने लिख डाले ।
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