आयुर्वेद का अपार साहित्य अभी भी देश-विदेशों के पुस्तकालयों/मंथागारोए पुरुतत्व विभाग समहलयोंए पुरुतन वैद्यों चिकित्सेतर साहित्य में विपुल रूप से विस्कीर्ण है जिसे समाहित कर पान एक कठिन कार्य है तथापि परिषद किसी न किसी रूप में इससे संबंधित प्रयासों में विगत दो दशकों से संलग्न है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत कतिपय महत्वपूर्ण मंथों का प्रकाशन किया गया है।
"नानाविध वैद्यम्' नामक पाण्डुलिपि तमिल भाषा में हस्तलिखित रूप में कागज पर उपलब्ध है। यह मंथ तंजौर के महाराजा सरफौजी सरस्वती महल पुस्तकालय में उपलब्ध है। इसकी पाण्डुलिपि संख्या बी. १०७८५ तथा डी/१११६७ है। इस मंथ को परिषद के वांग्मय अनुसंधान एकक, तंजौर के माध्यम से देवनागरी / संस्कृत लिपि में रूपान्तरित किया गया है जिससे विद्वान चिकित्सकों, अनुसंधानकर्ताओं एवं आयुर्वेद के अध्ययन में अभिरूचि रखने वाले पाठकों के सौकर्य हेतु प्रस्तुत किया जा रहा है। इस मंथ के लेखक के संबंध में जानकारी नहीं हो पा रही है। किंतु ग्रंथ का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि यह मंथ उत्तर-मध्यकालीन समय का लिखा गया है तथा इसमें प्रमुख रूप से शार्ङ्गधर संहिता, रसार्णव एवं अनंगरंग आदि ग्रंथों के संदर्भ उपलब्ध होते हैं। विभिन्न रोगों की चिकित्सा तथा विशेष रूप से रस योगों को इसमें पर्याप्त वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त कषाय कल्पना, घृत, तैल कल्पना आदि के संदर्भ भी मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि इस मंथ का लेखक एक सुयोग्य, अनुभवी चिकित्सक होने के साथ-साथ आयुर्वेद साहित्य के भी अच्छे विद्वान थे तथा उन्होंने चिकित्सकों की जानकारी के लिए आवश्यक संदर्भों का संकलन एवं अपने अनुभव-सिद्ध चिकित्सा का यथा-स्थान वर्णन किया है।
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