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नैषध-महाकाव्य में ध्वनि-नियोजन: Naishadh-Mahakavya Me Dhvani-Niyojan

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Item Code: HBD378
Author: Raj Kanwar
Publisher: Nirmal Publishing House, Kurukshetra
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9788196585853
Pages: 441
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 606 gm
Fully insured
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100% Made in India
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Book Description
पुस्तक परिचय

ध्वनिसन्दर्भ में प्रस्तुत पुस्तक को सात अध्यायों में विभक्त कर, प्रथम अध्याय में ध्वनि- सिद्धान्त का विवेचन करते हुए स्वतः सिद्ध भी ध्वनि की सर्वव्यापकता एवं सर्वप्रधानता को सिद्ध कर, द्वितीय अध्याय में ध्वनि के परिप्रेक्ष्य में काव्यशास्त्रीय-परम्परा का परीक्षण किया गया है। तृतीय अध्याय में असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गय ध्वनि के रूप में अङ्गीरसरूप शृङ्गार रसध्वनि, अङ्गभूत रसध्वनि तथा रसात्मक उक्तियों के अन्य भेदों का संयोजन किया गया है।

चतुर्थ अध्याय में संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्य अलङ्कारध्वनि के भेद शब्दशक्तिमूलक के साथ ही अर्थ- शक्तिमूलक, उसके भेदों-कविप्रौढोक्तिसिद्ध, कविनिबद्धवक्तृप्रौढ़ोक्तिसिद्ध और स्वतः सम्भवी के साथ ही उभयशक्तिमूलक अलङ्कारध्वनि का विवेचन कर, पञ्चम अध्याय में वस्तुध्वनि के अविवक्षितवाच्य, उसके भेदों- अर्थान्तरसङ्क्रमित और अत्यन्ततिरस्कृत का विवेचन कर, विवक्षितान्यपरवाच्य के प्रथम भेद शब्दशक्तिमूलक के साथ ही अर्थशक्तिमूलक के भेदों-कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध, कविनिबद्धवक्तृप्रौढ़ोक्तिसिद्ध तथा स्वतः सम्भवी ध्वनि की योजना की गई है।

षष्ठ अध्याय में गुणीभूतव्यङ्ग्य के अन्तर्गत अगूढ़, अपराङ्ग, वाच्यसिद्ध्यङ्ग, अस्फुट, सन्दिग्धप्राधान्य, तुल्यप्राधान्य, काक्वाक्षिप्त एवं असुन्दर गुर्णीभूतव्यङ्ग्य का विवेचन कर, सप्तम अध्याय में व्यञ्जक-वैशिष्ट्य के सन्दर्भ में अविवक्षितवाच्यध्वनि के भेदों अर्थान्तरसङ्क्रमित तथा अत्यन्ततिरस्कृत के साथ ही विवक्षितवाच्यध्वानि के भेदों-संलक्ष्यकमव्यङ्ग्य और असंलक्ष्यक्रम व्यङ्यध्वनि का व्यञ्जक की दृष्टि से नियोजन किया गया है तथा निष्कर्ष एवं परिशिष्ट के साथ ही ग्रन्थ पूर्ण कर दिया गया है। इस प्रकार ध्वनि के असङ्ख्य भेदों-प्रभेदों का नियोजन एक ही महाकाव्य 'नैषध' के आधार पर किया गया है, सभी उदाहरणों को नैषद से ही दिया गया है।

लेखक परिचय

इस पुस्तक में कुछ हिन्दी नाटकों को प्रतिनिधिरूप में चुनकर विवेचित किया गया है, जिससे भारतेन्दु से लेकर अब तक के कुछ प्रतिष्ठित नाटकों के चरित्र से हिन्दी नाटक के जिज्ञासुओं को परिचित कराया जा सके। इसमें इन हिन्दी नाटकों और इन नाटकों के पात्रों के चरित्र को विशेषतया उजागर किया गया है और ये चरित्र स्वयं अपने जनक नाटककारों को कर्तव्य कारकों की ओर प्रेरित करते हैं कि उन्हें हिन्दी नाटक को किस दिशा में ले जाना चाहिए।

भूमिका

महाकवि श्रीहर्ष एवं उनका नैषध

श्रीहर्ष का परिचय

संस्कृत-काव्य-मर्मज्ञ महान मनीषियों ने प्रायः अपने विषय में कुछ भी नहीं लिखा है। कुछ लिखना तो बहुत दूर की बात है, अपने नाम तक का भी परिचय नहीं दिया है। परन्तु संस्कृत-साहित्य-भास्कर, कविता-वनिता-हर्ष, महाकवि श्रीहर्ष इस विषय में परम सौभाग्यशाली हैं; सौभाग्य का प्रतीक है, उनका यह श्लोकार्द्ध-

"श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतम्,

श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् ।”

'नैषधीयचरितम्' के प्रत्येक सर्ग के अन्त में प्रदत्त उपर्युक्त श्लोकांश से स्पष्ट है कि कवि-राज-समूह के अलङ्कार 'हीरक' के तुल्य श्रीहीर और मामल्लदेवी ने जितेन्द्रिय श्रीहर्ष को पुत्र-रूप में जन्म दिया था अर्थात् इनके पिता का नाम श्रीहीर और माता का नाम मामल्लदेवी था। इनकी माता 'वातापि' के निकटस्थ मामल्लपुर की निवासिनी थी। इनके पिता श्रीहीर महाराज विजयचन्द्र की सभा के प्रमुख पण्डित थे।

कहा जाता है कि एक बार राजसभा में मिथिला के प्रख्यात नैयायिक पण्डित श्री उदयनाचार्य ने पण्डित श्रीहीर को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। पराजय से तिरस्कृत पिता की आज्ञानुसार श्रीहर्ष ने व्याकरण, न्याय, वेदान्त, साङ्ख्य, योग, ज्योतिष, मन्त्रशास्त्रादि अनेक शास्त्रों का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन कर, वर्षपर्यन्त चिन्तामणिमन्त्र का अनुष्ठान कर, भगवती-त्रिपुरा से वर प्राप्त कर स्वयं को पिता के विजेता से श्रेष्ठ सिद्ध किया था, साथ ही उदयनाचार्य को कटाक्ष-स्वरूप यह श्लोक भी लिख दिया था-

साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले

तर्के वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती।

प्रस्तावना

सरस्वति नमस्तुम्यं वरदे कामरूपिणी।

विश्वरूपे विशालाक्षि विद्यां देहि सरस्वति ।।

सरस्वती के पावन मन्दिर में अनेक प्रतिभाओं ने देववाणी की आराधना की, समालोचना के सार्वभौम सिद्धान्त की सतत् साधना की, परन्तु अभिलाषा अभिलाषा ही रही। आत्म-पावनत्व के स्पन्दन से रहित अर्चन अर्चन हो भी कैसे? सौभाग्य से शास्त्रीय चिन्तन की दिशा में चमत्कार हुआ, एक पुनीत प्रतिभा का अवतार हुआ, सुन्दर-सा स्वप्न साकार हुआ। स्वप्न था काव्य-ललना का लावण्य, न कहीं किसी ने देखा था, न कभी किसी ने सुना था। प्रगतिपथ पर पड़ते पग उत्थान की ओर बढ़ चले, अनाहत नाद कर चले। आनन्द के हिमगिरि से ध्वनि की धारा बहने लगी, धारा की त्रिवेणी अभिनववेग से वेगवती हो, काव्य के मर्म को कहने लगी। देवी का वरद हस्त उठा, मौन स्वीकृति मिली और काव्यप्रासाद पर ध्वनिध्वज लहराने लगा, ध्वनि-सिद्धान्त काव्यशास्त्र का सार्वभौम सिद्धान्त कहलाने लगा।

आनन्दवर्धन की अप्रतिम आभा के अनन्तर श्रीहर्ष की प्रखर प्रतिभा का अवतरण एक दैव-संयोग ही था। कवि ने पवित्र नल-कथा का आश्रय लिया और नैषध-सा महाकाव्य रच दिया। वैसे तो नल-कथा आदि काल से ही प्रसिद्ध रही है। रामायण में नल-कथा के सङ्केत उपलब्ध होते हैं,' महाभारत में तो नल-दमयन्ती-कथा ने विस्तार पाया है, इसी आधार पर विद्वानों ने वैदिक-साहित्य में भी इसकी प्रसिद्धि का अनुमान लगाया है।

प्राकथन

श्रीहर्ष ने अति-अलङ्करण की तत्कालीन काव्यपरम्परा से हट कर एक अतिनवीन मार्ग पर चलकर, सम्भवतः ध्वन्यालोक एवं लोचन की मान्यताओं को ध्यान में रखकर, विविध-विधाओं से विभूषित अपने नैषध की रचना की थी। जिसके कारण उन्हें काशी के पण्डितों का विरोध झेलकर, कण्टकों से भी खेलकर अपने महाकाव्य के सत्यापन के लिए ध्वनिकार एवं लोचनकार की कर्मभूमि कश्मीर की कठिन यात्रा पर जाना पड़ा था। अति संघर्ष के उपरान्त उन्हें सुफल प्राप्त हुआ और उनका नैषध 'विद्वदौधम्' विरुद से विख्यात हुआ।

यद्यपि समस्त ज्ञानविज्ञानालोकालोकित, सकलकलाकलापसमन्वित, समग्रगुणगणगुम्फित, अतिप्रशंसित, अतिचर्चित, अतिप्रख्यात, बहुविख्यात, बहुटीकित, बहुसमीक्षित श्रीहर्ष के नैषध की समीक्षा के लिए कुछ भी लिखना शेष नहीं है तथापि उत्सुकतावश कुछ लिखने का एक विनम्र-सा प्रयास किया गया है, गरिमामय-गौरव से गौरवान्वित, महिमामय-माधुर्य से मण्डित इस महाकाव्य को ध्वनि के निकष पर कस और अधिक गौरव प्रदान करने का एक अभिनव-सा अभ्यास किया गया है।

संस्कृत - काव्यशास्त्र की अति-विशाल परम्परा में 'ध्वनिसम्प्रदाय' का अति-विशिष्ट स्थान है, पूर्ववती-परवर्ती सभी परम्पराओं का यह एक मात्र काव्यशास्त्रीय संविधान है, साथ ही महाकवित्व की कसौटी का परम निधान है। ध्वनिकार आनन्दवर्धन के अनुसार कालिदास आदि कुछ विरले ही कवि सफल हुए ध्वनि-समीक्षण की इस समीक्षा में, महाकवित्व की इस परीक्षा में।

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