जन्म और मरण का सतत् क्रम इस सृष्टि में सहज में ही देखने को मिलता है। जैसे रेलगाड़ी के प्लेटफार्म पर असंख्य यात्री आते हैं और फिर अपने-अपने गंतव्य पर पहुँचने के लिए गाड़ी में बैठकर अदृश्य हो जाते हैं। ऐसे ही सृष्टि में अनन्त जीव जन्म लेते हैं और कुछ काल इस मंच पर रहकर नाना प्रकार के कर्मों को करते हुए अदृश्य हो जाते हैं अथवा मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। केवल बीच में यह भासता हुआ जीवन ही क्या जीवन है या जन्म से पहले भी कोई जीवन तत्त्व है जो जन्म लेता है अथवा मरने के पश्चात भी क्या कोई जीवन-तत्त्व रहता है जो पुनः जन्म ले सकता है? जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का होना स्वाभाविक-सा है वैसे ही जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म स्वाभाविक-सा प्रतीत होता है।
यह जन्म-मरण केवल मात्र यांत्रिक नहीं है, बल्कि इसके पीछे अन्तर्निहित जीव की इच्छा, कामना कार्य कर रही है जिसके अनुकूल ही वह अपने कर्मों के द्वारा भिन्न भिन्न गतियों एवं योनियों को प्राप्त करता है। मूल रूप एक होने पर भी सृष्टि में अनन्त विभिन्नताएँ हैं। अनन्त योनियाँ केवल जीव की अपनी वासना और कर्म का ही प्रतिफल है। इसलिए जीवन को समग्र रूप में समझने के लिए हमें न केवल इस दृश्यमान जीवन को ही समझना पड़ेगा, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं विराट् रूप को भी समझना आवश्यक है।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12493)
Tantra ( तन्त्र ) (986)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1890)
Chaukhamba | चौखंबा (3352)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1444)
Yoga ( योग ) (1093)
Ramayana ( रामायण ) (1390)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23046)
History ( इतिहास ) (8221)
Philosophy ( दर्शन ) (3383)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2532)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist