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मीडिया और साहित्य दृष्टि- Media and Literary Vision

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Item Code: HAF481
Author: Mukesh Kumar Mirotha
Publisher: HANS PRAKASHAN, DELHI
Language: Hindi
Edition: 2023
ISBN: 9788196577896
Pages: 128
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 280 gm
Fully insured
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Book Description
पुस्तक परिचय

मानव ने स्वयं को हाक-भाव से व्यक्त करने से लेकर आभासी दुनिया में संवेदनाओं की मशीनी अभिव्यक्ति तक की एक लम्बी यात्रा की है। इसके वैश्विक विस्तार ने उसे 'ग्लोबल' की अवधारणा से सम्पृक्त कर दिया है। अरस्तू के मनुष्य को सामाजिक प्राणी से लेकर मार्शल मैक्लूहन के मीडिया व्यक्ति तक की तमाम संकल्पनाओं ने समाज, मीडिया के साथ मनुष्य को गहरे तक सम्बन्ध रखा है। भाषा ने इसमें पर्याप्त सहयोग दिया है। जहाँ भाषा अभिव्याक्ति को शब्द प्रदान करती है वहीं मीडिया भाषा के व्यवहार का माध्यम वनता है। वाचिक परम्परा से लेकर जोंस गुटेनबर्ग की प्रथम मशीनी मुद्रण प्रणाली आते-आते यह सम्बन्ध और ज्यादा मजबूत हो जाता है। अखबार, रेडियो, टी.वी. और इंटरनेट के आगमन से भाषा और भाव दोनों को अभिव्यक्ति के नवीन आयाम मिले और विश्व भूमंडलीकरण सदृश अवधारणा को व्यापक विस्तार मिला। हिन्दी और साहित्य की दुनिया ने इसे प्रभावित किया तो साहित्यिक दुनिया भी इनके असर से बच न सकी। वर्तमान मीडिया सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन की त्रयी से बाहर निकलकर अब सूचना विस्फोट, हैकिंग, गेटकीपर रहित कटेट, वाचाल, अभिनयात्मक न्यूज प्रस्तुति और भाषा के संकर होने का युग है। फेक एवं पेड न्यूज की सघनता ने इसे सूचना -युद्ध के मुकाम तक पहुँचा दिया है। सोशल मीडिया अर्थात् न्यू मीडिया की जन एवं सर्व-उपलब्धता ने इसे अधिक उन्मुक्त बना दिया है। सूचना एक शक्तिशाली हथियार के रूप में सर्वत्र दिखने लगा है। उचित शोध की कमी ने इसके समक्ष अनेक प्रश्न भी खड़े किए हैं। मीडिया एवं इससे संबंधित तंत्रों पर अनुसंधान की कमी एवं वैचारिक बहुलता के प्रवाल आग्रह ने इसकी साख या कहें तो इसकी प्रामाणिकता पर संदेह का अवसर दिया है।

मीडिया पर जिम्मेदारियों के निर्वहन का व्यापक दवाव भी इसे लगतार कमजोर करते आया है। महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का प्रारंभ स्रोत बना मीडिया अब केवल राजनीतिक विकास की एकआयामी डोर का सूत्रधार बना हुआ है। बहरहाल मीडिया पर समय, सत्ता के दवाव इसकी परीक्षा ले रहे हैं। शायद यही सब वजह रही होगी जो मुझे मीडिया और साहित्य से जुड़े मुद्दों से संबंधित अनुभवों को अभिव्यक्ति प्रदान करने हेतु प्रेरित करती रही। प्रस्तुत पुस्तक इसी की प्रतिक्रिया का परिणाम है।

प्रस्तुत पुस्तक का मीडिया एवं साहित्य दृष्टि शीर्षक इसलिए दिया गया है कि मैं मूलतः साहित्य का विद्यार्थी हूँ। मीडिया मेरी रुचि का अभिन्न विषय रहा है। किताब पढ़ते समय आपको मीडिया पर मेरी ज्ञान साहित्यिक प्रवृत्ति का किंचित प्रभाव देखने को मिल सकता है। सारे लेख समय-समय पर मन में उठने वाले भावों का शाब्दिक विवरण मात्र ही नहीं है वरन् परिवर्तनशाली प्रवृत्तियों का चित्रण भी है। मीडिया एवं साहित्य अलग नहीं है और न कभी अलग किए जा सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक मीडिया के तमाम क्षेत्रों तक भले ही न पहुँच पाई हो मगर मेरी कोशिश मात्र को आपका समर्थन सहयोग मिला तो पुनः प्रयास में कोई कसर न रखूँगा, यह मेरा वादा है। फिलहाल तो आपके स्नेह-वचनों का आकांक्षी हूँ। प्रतिक्रियाएँ अवश्य दीजिएगा। पुस्तकें श्रम की प्रत्यक्ष प्रतीक होती हैं, अतः इसमें सामूहिकता प्रतिबिम्बित होती रहती है। भले ही पात्रों या घटनाओं के रूप में हो। प्रस्तुत पुस्तक को तैयार करने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बहुत सारे मेरे अपनों का साथ मिला है। नामोल्लेख या धन्यवाद कहना उनके श्रम का अवमूल्यन होगा और उनका सम्मान मेरे लिए सर्वोपरि है और रहेगा भी। बस इतना कह सकता हूँ कि मैं उन सबके लिए नतमस्तक हूँ।

लेखक परिचय

डॉ. मुकेश मिरोठा जी इक्कीसवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण विमर्शकारों में से एक हैं। इनकी कविताओं और लेखों में हाशिये के समाज की स्पष्ट पक्षधरता दिखाई देती है। भारतीय जन मानस की चिंता आपकी कविताओं के केंद्र में है। आपकी रचनाओं में उच्च कोटि के मानवीय मूल्यों की स्थापना हुई है। आपकी रचनाएँ सामाजिक न्याय व प्रगतिशील मूल्यों के तानेबाने से अधिरचित हैं। पुस्तकों का वैचारिक-कैनवास सामान्य जन की अनुभूति तक विस्तृत है।

हिन्दी साहित्य और दलित विमर्श, हिन्दी साहित्य में दलित चिंतन, दलित विमर्श की भूमिका, साहित्य और दलित वैचारिकी, राजस्थानी सिनेमा और वर्तमान, सिनेमा रू संस् ति का यथार्थ और समकालीन परिदृश्य आदि महत्वपूर्ण पुस्तकें लिख चुके हैं।

सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली ।

प्राक्कथन

मानव ने स्वयं को हाक-भाव से व्यक्त करने से लेकर आभासी दुनिया में संवेदनाओं की मशीनी अभिव्यक्ति तक की एक लम्बी यात्रा की है। इसके वैश्विक विस्तार ने उसे 'ग्लोबल' की अवधारणा से सम्पृक्त कर दिया है। अरस्तू के मनुष्य को सामाजिक प्राणी से लेकर मार्शल मैक्लूहन के मीडिया व्यक्ति तक की तमाम संकल्पनाओं ने समाज, मीडिया के साथ मनुष्य को गहरे तक सम्बन्ध रखा है। भाषा ने इसमें पर्याप्त सहयोग दिया है। जहाँ भाषा अभिव्याक्ति को शब्द प्रदान करती है वहीं मीडिया भाषा के व्यवहार का माध्यम बनता है। वाचिक परम्परा से लेकर जोंस गुटेनबर्ग की प्रथम मशीनी मुद्रण प्रणाली आते-आते यह सम्बन्ध और ज्यादा मजबूत हो जाता है। अखबार, रेडियो, टी.वी. और इंटरनेट के आगमन से भाषा और भाव दोनों को अभिव्यक्ति के नवीन आयाम मिले और विश्व भूमंडलीकरण सदृश अवधारणा को व्यापक विस्तार मिला। हिन्दी और साहित्य की दुनिया ने इसे प्रभावित किया तो साहित्यिक दुनिया भी इनके असर से बच न सकी।

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