पुस्तक के विषय में
'मय्यादास की माड़ी' में दाखिल होने का एक खास मतलब है, यानि पंजाब की धरती पर एक ऐसे कालखंड में दाखिल होना, जब सिक्ख अमलदारी को उखाड़ती हुई ब्रिटिश साम्राज्यशाही दिन व् दिन अपने पाँव फैलाती जा रही है |
भारतीय इतिहास के इस अहम बदलाव को भीष्म जी ने एक कस्बाई कथाभूमि पर चित्रित किया है और कुछ इस कौशल से की हम जन जीवन के ठीक बीचोबीच जा पहुंचते है | झरते हुए पुरातन के बीच लोग एक नए युग की आहटें सुनते है, उन पर बहस मुबाहसा करते है और चाहे अनचाहे बदलते चले जाते है उनकी अपनी निष्ठाओं, कद्रों, कीमतों और परम्पराओं पर एक नया रंग चढ़ने लगता है | इस सबके केंद्र में है दिवान मय्यादास की माड़ी, जो हमारे सामने एक शताब्दी पहले की सामंती अमलदारी, उसके सड़े गले जीवन मूल्यों और हास्यास्पद हो गए ठाठ बाठ के एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक प्रतिक में बदल जाती है | इस माड़ी के साथ दीवानों की अनेक पीढ़ियों और अनेक ऐसे चरित्र जुड़े हुए है जो अपने अपने सिमित दायरों में घूमते हुए भी विशेष अर्थ रखते है इनमे चाहे सामंती धूर्तता और दयनीयता की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिवान धनपत और उसका बेटा हुकुमतराय हो, राष्ट्रीयता के धूमिल आदर्शों से उद्वेलितलेखराज हो, बीमार और नीम पागल कल्ले हो, साठसाला बूढ़ी भगसुद्धि हो या फिर विचित्र परिस्थितियों में माड़ी की बहू बन जानेवाली रुक्मो हो जो अंततः एक नए युग की दीप शिक्षा बनकर उभरती है |
वस्तुतः भीष्म जी का यह उपन्यास एक हवेली अथवा एक कसबे की कहानी होकर भी बहते कल प्रवाह और बदलते परिवेश की दृष्टी से एक समूचे युग को समेटे हुए है और उनकी रचनात्मकता को एक नई ऊँचाई सौंपता है |
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