पुस्तक के विषय में
फांसी लाहौर की पुस्तक में अमर शहीद भगतसिंह की शहादत को विषय बनाकर लिखी गई उन कविताओं का संकलन है, जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान लिखी गई और जिन्हें समूहगान के रूप में भारतीय नागरिक भाव विह्ल होकर गाते रहे । ये कविताएं अब तक जहां-तहां फुटकर रूप से प्रकाशित होती रही या फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीय नागरिक के कंठ में व्याप्त रहीं । आज काव्यशास्त्रीय आलोचना पद्धति के लिए भले ही इस संकलन की कविताएं महत्त्वपूर्ण न हों, किंतु भारतीय नागरिक की संवेदनाओं को उद्बुद्ध करने के लिए ये बहुत ही महत्वपूर्ण हैं ।
राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए जब भगतसिंह ने लाला लाजपत राय के हत्यारे सांडर्स का कल किया था, उन्हीं दिनों भारत के लोकमानस में उनकी छवि नायक के रूप में उभर गई थी । अपने मृत्यु-दंड के बारे में उन्होंने घोषणा की कि 'ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिंह जीवित भगतसिंह, से ज्यादा खतरनाक होगा... । मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी । वह नौजवान को मदहोश करेगी और वे आजादी तथा क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे ।' 23 मार्च 1931 को लाहौर में भगतसिंह को फांसी दी गई, और सचमुच उनके क्रांतिकारी विचार देश भर में प्रेरणा के स्रोत बन गए । इस पुस्तक में संकलित सारी रचनाएं देशभक्ति और भगतसिंह की शहादत के इन्हीं मूल्यों को उजागर करती हैं ।
इस पुस्तक में संकलित हिन्दी एवं उर्दू की चुनी हुई कविताओं का चयन-संपादन गुरदेव सिंह सिद्ध (4 जनवरी 1948) ने किया है । पंजाबी भाषा साहित्य में इनकी डेढ़ दर्जन से अधिक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं । उनमें से कुछ प्रमुख है-सिघं गर्जना साका बाग-जलियावाला आवाज-ए-गांधी सरहदी शेर आदि । स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय नागरिक के जोश को रेखांकित करने और देश प्रेम का उत्कर्ष स्पष्ट करने हेतु इन कविताओं को आज भी धरोहर के रूप में देखा जा रहा है ।
भूमिका
लाहौर में लाला लाजपत राय की हत्या के आरोप में अंग्रेज पुलिस अफसर मिस्टर जे.पी. सांडर्स का कला करने के बाद 17 दिसंबर 1928 को जो पोस्टर' बांटे गए, उनका शीर्षक था:
'जे.पी. सांडरस की मौत के साथ लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले तिया गया है ।'
पोस्टर में लिखा गया था
'यह बड़े दुःख की बात है कि तीस करोड़ लोगों के आदरणीय नेता पर जेपी. सांडरस जैसे साधारण पुलिस अफसर ने हमला किया और उसके नीच हाथ उनकी (लाला जी की) मौत का कारण बने ।
'आज संसार ने देख लिया है कि भारत की जनता बेजान नहीं है, उसका खून सरद नहीं हुआ है। वह राष्ट्र के सम्मान की खातिर अपना जीवन न्योछावर कर सकते हैं! नवयुवकों ने इसका सबूत दे दिया है... ।'
पुलिस ने सांडरस के कल संबंधी जो प्रथम सूचना रपट उस दिन दर्ज की उसमें भगतसिंह का नाम मुख्य आरोपी के रूप में शामिल था ।
इसके करीब चार महीने बाद 18 अप्रैल, 1929 को भगतसिंह ने अपने साथी बी.के. दत्त के साथ केंद्रीय एसेंबली में बम फेंका । इस मौके पर भी एक पोस्टर2 बांटा गया जिसमें लिखा था
'बहरों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत पड़ती है । हिंदुस्तानी जनता की ओर से, हम इतिहास द्वारा अक्सर ही दुहराए जाने वाले इस सबक पर जोर देना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति को मार देना आसान है, लेकिन आप उसके विचारों को कला नहीं कर सकते । बड़ी-बडी सल्लनतें गिर गईं, जबकि विचार जीवित रहे ।
'हर किसी को स्वतंत्रता देने और मनुष्य के शोषण को असंभव बनाने के लिए महान इन्कलाब की वेदी पर व्यक्तियों की कुरबानी आवश्यक होती है ।' जब इस मुकदमे की सुनवाई सेशन कोर्ट में शुरू हुई तो भगतसिंह ने बम फेंकने जैसा कार्य करने का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि ऐसा करने से उनका उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था । भगतसिंह ने अपने बयार3 में आगे कहा, "इंसानियत को प्यार करने में हम किसी से पीछे नहीं हैं । किसी से व्यक्तिगत द्वेष तो दूर की बात हम मनुष्य जीवन को इतना पवित्र समझते हैं जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता ।'' बम फेंकने के पीछे अपने मकसद के बारे में उन्होंने कहा, ' 'जिनके पास अपने दिल तोड्ने वाले क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन नहीं, हमने उनकी ओर से एसेंबली में बम फेंका । हमारा एक मात्र उद्देश्य था बहरों को सुनाना और लापरवाह को समय रहते चेतावनी देना ।'' उन्होंने आगे कहा, ''बम फेंकने के बाद इस कार्य की सरना भोगने के लिए और साम्राज्यवादी शोषकों को यह बताने के लिए कि कुछ व्यक्तियों को मारकर वह आदर्श को खत्म नहीं कर सकते, हमने आपने आप को जान-बूझकर पुलिस के हवाले कर दिया ।''
इस बयान में क्रांति और हिंसा की व्याख्या भी की गई थी । बयान का समापन इन शब्दों से किया गया था, ''क्रांति की वेदी पर हम अपने यौवन को पूजा सामग्री के रूप में अर्पित कर रहे हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं है ।''
एसेंबली बम मामले का फैसला 12 जून 1929 को सुनाया गया, जिसमें भगतसिंह और दत्त को आजीवन काला पानी कारावास की सजा सुनाई गई । उन दिनों पंजाब सरकार, लाहौर षड्यंत्र केस के नाम से जाने जानेवाले और मुकदमे की पड़ताल कर रही थी । चूंकि इसमें भगतसिंह को भी एक आरोपी राय साहिब पंडित श्री कृष्ण मजिस्ट्रेट दरजा अव्वल द्वारा की जा रही थी । कुछ महीनों की सुनवाई के पश्चात ही सरकार की इच्छा प्रगट होने लगी । जेल में राजनीतिक कैदी का दर्जा दिए जाने जैसी और कई मांगों की पूर्ति को लेकर इस मामले के आरोपियों ने भूख हड़ताल शुरू की तो देश भर में इस बात की चर्चा होने लगी । सांडर्स को कल करने के समय भगतसिंह की आयु लगभग 20 साल थी । इतनी छोटी उम्र में इतना बड़ा साहसी कार्य करने के लिए भारत की जनता उसके प्रति स्नेह तथा आदर भाव रखने लगी थी । अब आम लोगों के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जो नेता भगतसिंह की विचारधारा से सहमत नहीं थे, वे भी उनके पक्ष में आवाज उठाने लगे । ऐसे में जब 29 सितंबर, 1929 को केंद्रीय एसेंबली में उनकी भूख हड़ताल पर चर्चा4 चली तो पंडित मोतीलाल नेहरू ने उन्हें 'महान आत्मा वाले पूजनीय व्यक्ति' कहकर सराहा । पंडित मदनमोहन मालवीय ने कहा, 'वे ऐसे व्यक्ति हैं, जो देशभक्ति की उच्च भावना और देश की आजादी की इच्छा से प्रेरित हें । वे ऊंचे आदर्शों वाले व्यक्ति हैं ।'
मोहम्मद अली जिन्नाह तो सब से बाजी ले गए । भूख हड़ताल की विचारधारा को मान्यता देते हुए उन्होंने कहा, 'भूख हड़ताल करने वाला व्यक्ति आत्मा वाला होता है । वह, निर्दयी तथा नीच कार्य करने वाला साधारण मुजरिम नहीं होता ।' सरकार की बेरुखी के विरुद्ध ऊंगली उठाते हुए उन्होंने कहा, 'मुझे खेद है कि सही या गलत, आज का युवा उत्तेजित है, आप चाहे उनकी कितनी निंदा करें और आप कितना ही कहें कि वे गुमराह हुए हैं । यह तो व्यवस्था (जो निंदनीय व्यवस्था है, जिसके प्रति लोगों में आक्रोश है) के कारण है ।' सरकार द्वारा लाहौर षड्यंत्र केस को जल्दी से निपटाने के लिए की जा रही तेजी का मजाक उड़ाते हुए मिस्टर जिन्नाह ने कहा, ''मैं सरकार द्वारा इस मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए दिखाई जा रही जल्दबाजी को नहीं समझ सकता, जबकि यह व्यक्ति भूख हड़ताल को जारी रखकर अपने आप को बड़ी से बड़ी संभव यातना दे रहे हैं ।' लोगों की भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए सरकार ने यह मुकदमा एक स्पेशल ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया, जिसने 07 अक्टूबर 1930 को फैसला सुनाते हुए भगतसिंह और उसके दो साथियों-राजगुरु और सुखदेव-को फांसी की सजा सुनाई । फांसी देने के लिए 23 अस्तूबर की तारीख निश्चित की गई । वकीलों के एक समूह द्वारा प्रिवी काउंसिल को अपील किए जाने के कारण सजा पर अमल किया जाना आगे पड़ गया । जब यह अपील निरस्त हो गई और फांसी तुड़वाने के लिए की गई कानूनी कोशिशें भी विफल रहीं तो आखिर तीनों देशभक्तों को, सामान्य परंपरा के विरुद्ध जाते हुए, 23 मार्च 1931 को सायं 7 बजे फांसी लगाकर शहीद कर दिया गया । 'फ्री प्रेस जरनल' पत्र ने यह खबर अपने 24 मार्च के अंक में इन शब्दों में प्रकाशित की-'सरदार भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव अब जीवित नहीं रहे । उनकी मृत्यु में ही उनकी जीत है । इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए । अफसरशाही ने उनके फानी वजूद को खतम कर दिया है, राष्ट्र ने उनके अमर आदर्शो के आत्मसात कर लिया है । यूं अफसरशाही को खौफजदा करने के लिए भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव अनंत काल तक जिंदा रहेंगे ।''
'फ्री प्रेस जरनल' का ऐसा लिखना निर्मूल नहीं था, राष्ट्रीय नेता तथा सरकारी अधिकारी पहले ही इसी निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे । भगतसिंह को फांसी लगाए जाने से तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को दिल्ली में एक जनसमूह को संबोधित करते हुए श्री सुभाष चंद्र बोस ने कहा था,' 'आज भगतसिंह एक व्यक्ति नहीं, एक प्रतीक बन गया है । प्रतीक उस क्रांतिकारी भावना का, जो सारे देश में व्यापक है ।'' गुप्तचर विभाग के एक अधिकारी ने भी भविष्य में भगतसिंह की कुरबानी को देशभक्तों के लिए प्रेरणा स्रोत बताते हुए हिंदुस्तान सरकार के गृहविभाग को भेजी अपनी रिर्पोट में लिखा था, ''भगतसिंह और उनके साथी निश्चित तौर पर भविष्य में उत्तेजनापूर्ण प्रचार के लिए आधार का काम करेंगे ।"7
सरदार भगतसिंह और उसके साथियों का स्वतंत्रता आदोलन के यज्ञ में जीवन-आहुति डालने का उद्देश्य, राजनीतिक तौर पर सो रहे देशवासियों को जगाना और साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ उनको लामबंद होने के लिए जाग्रत करना था । सरदार भगतसिंह ने अपनी शहादत के तीन दिन पहले गर्वनर पंजाब को लिखे पत्र में ऐसे ही उद्गार प्रगट किए थे । इस पत्र8 में लिखा गया था, ''जब तक समाजवादी गणराज्य की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक यह लडाई इससे भी ज्यादा जोश के साथ लड़ी जाएगी, ज्यादा जांबाजी के साथ और ज्यादा पक्के इरादे से...।
साम्राज्यवादी और पूंजीपति शोषण के अब गिनती के दिन रहे गए हैं । यह लड़ाई न तो हमारे साथ शुरू हुई थी और न ही हमारी मौत के साथ इसका अंत होगा... । हमारी नाचीज कुरबानी तो इस जंजीर की एक कड़ी है ।''
भगतसिंह पहले भी ऐसे विचार अपने दोस्तों के साथ बातचीत करते हुए व्यक्त करते रहते थे । जेल जीवन के उनके साथी शिव वर्मा ने 'भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज'9 पुस्तक की प्रस्तावना में एक ऐसी बातचीत का विवरण इन शब्दों में दिया है : ''वह जुलाई 1930 का अंतिम रविवार था.. .उस दिन हम किसी राजनीतिक विषय पर बहस कर रहे थे कि बातों का रुख फैसले की तरफ मुड़ गया ।... मजाक-मजाक में हम एक दूसरे के खिलाफ फैसले सुनाने लगे, सिर्फ राजगुरु और भगतसिंह को इन फैसलों से बरी रखा गया । 'और राजगुरु और मेरा फैसला? क्या आप लोग हमें बरी कर रहे हैं ?' मुस्कराते हुए भगतसिंह ने पूछा । किसी ने कोई जवाब नहीं दिया ।
'असलियत स्वीकार करते डर लगता है ?' धीमे स्वर में उन्होंने पूछा । चुप्पी छाई रही ।
हमारी चुप्पी पर उन्होंने ठहाका लगाया और बोले, 'हमें गर्दन से फांसी के फंदे पर तब तक लटकाया जाए जब तक कि हम मर ना जाएं । यह है असलियत । मैं इसे जानता हूं । तुम भी जानते हो । फिर इसकी तरफ से आखें क्यों वंद करते
हो... ।
वे अपने स्वाभाविक अंदाज में बोलते रहे-देशभक्त के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूं । वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जाएंगे । यह उनकी भूल है । वे मुझे मार सकते हैं लेकिन मेरी भावना को नहीं कुचल सकेंगे । ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे जब तक वे यहां से भागने के लिए मजबूर न हो जाएं ।...लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है । दूसरा पहलू भी उतना ही उज्ज्वल है । ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिंह जीवित भगतसिंह से ज्यादा खतरनाक होगा । मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी । वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे ।''
भगतसिंह का यह कथन अक्षर-अक्षर सही साबित हुआ । ऐसा होना भी स्वभाविक था । लोक मानस में भगतसिंह की एक नायक के रूप में तस्वीर तब से चित्रित होनी शुरू हो गई थी, जब राष्ट्रीय अपमान का वदला लेने के लिए उसने लाला लाजपत राय के हत्यारे सांडरस का कल किया था । एसेंबली हाल में बम फेंकने के पश्चात अपने आप को गिरफ्तारी के लिए पेश करने के फलस्वरूप इस तस्वीर में रंग भरे जाने लगे, जो मुकदमे की सुनवाई के दौरान सरकार की मक्कारी तथा बदनीयती का पोल खोलने वाले उसने वयानों से और आकर्षक होते गए । ऐसे में भगतसिंह का नाम वीरता, साहस और देशभक्ति का प्रतीक वन गया । थोडे समय में ही यह नाम बच्चे की जुबान से चढ़ गया । इस तथ्य की पुष्टि करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी आत्मकथा'' में लिखते हैं, ''वह (भगतसिंह) एक प्रतीक बन गया । घटना तो भूल गई, सिर्फ प्रतीक रह गया और चंद माह में पंजाब के हर एक नगर, गांव और कुछ हद तक उत्तरी भारत में भी उसके नाम की धूम मच गई । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस तरह से आश्चर्यजनक लोकप्रियता प्राप्त हुई ।''
भगतसिंह के बारे में रची गई ऐसी कविताओं को उनके रचयिता या अन्य देशभक्त वक्ता, जनसमूहों, राजनीतिक सम्मेलनों, धार्मिक मेलों आदि के अवसरों पर पढ़ तथा गाकर लोकमानस को देशसेवा के लिए प्रेरित करने लगे, जिससे ऐसी रचनाओं के प्रति सरकार का रवैया वैसा ही बन गया जैसा जीवित भगतसिंह के प्रति था । यानी जिस प्रकार साम्राज्यवादी सरकार ने कानून की अवहेलना करते हुए भगतसिंह तथा उसके साथियों को शरीरिक रूप से खत्म किया था, वैसे ही वह उनके बारे में लिखी रचनाओं को लोगों के हाथों न पड़ने देने के लिए सक्रिय रही ।11 लगता है कि सरकार को भगतसिंह के नाम से ही चिढ़ हो गई थी । यही कारण है कि सरकार ने भगतसिंह के बारे में लिखी गई पुस्तकें ही नहीं, उनकी अनेक तस्वीरों को भी जत्त किया । और तो और, दियासिलाई की एक डिब्बी, जिसके ऊपर भगतसिंह की शक्ल से मिलते जुलते जख्मी नवयुवक की तस्वीर थी, वह भी सरकार की ऐसी कार्यवाही से न बच सकी । 12 ऐसी सख्ती के बावजूद देशभक्त साहित्यकार इस विषय को लेकर रचनाएं करते रहे । भगतसिंह के बारे में रची इन रचनाओं पर प्रतिबंध लगाकर सरकार अपने उद्देश्य में सफल हुई या नहीं, यह विचारणीय विषय है, पर इस कार्रवाई का एक परोक्ष लाभ जरूर हुआ । यह तो माना नहीं जा सकता कि जप्त की गई रचनाओं के सिवा भगतसिंह के बारे में कुछ नहीं लिखा गया होगा । यकीकन लिखा गया होगा, और काफी लिखा गया होगा, लेकिन यह सभी रचनाएं समय की धूल के नीचे दबकर अब अप्राप्त हो गई हैं, जबकि प्रतिबंधित रचनाओं का बड़ा भाग विभिन्न अभिलेखागारों में अब भी उपलब्ध है ।
भगतसिंह की शहादत के बाद देश के आजाद होने तक के लगभग डेढ़ दशक के दौरान हिन्दी और ऊर्दू में समय-समय पर लिखी कविताओं में से प्रेरणादायक तथा साहित्यक गुण रखनेवाली कविताओं को विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध करके इस संग्रह में संकलित किया गया है ।
गिनी चुनी रचनाओं, जिनमें भगतसिंह के बचपन का हाल बयान किया गया है, को छोड्कर सभी रचनाओं में उनके जीवन की आखिरी घटना अथवा फांसी लगाकर शहीद किए जाने तथा इससे प्राप्त प्रेरणा को ही विषय बनाया गया है । इन कविताओं में बेशक भगतसिंह के साथ-साथ उनके दो साथियों-राजगुरु और सुखदेव द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए की गई कुर्बानी का जशोगान किया गया है । लेकिन इन कविताओं का सरसरी पाठ ही स्पष्ट कर देता है कि अपने साथियों के बीच भगतसिंह को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था । इन रचनाओं में किसी व्यक्ति विशेष का विस्तृत चरित्र-चित्रण हुआ नहीं मिलता । फिर भी अगर किसी व्यक्तित्व के बारे में कुछ संकेत मिलते हैं तो बिना शक ऐसा नायक-व्यक्तित्व है भगतसिंह का । यही कारण है कि बहुत सी कविताएं तो सीधे भगतसिंह को मुखातिब होकर लिखी गई हैं ।
इन रचनाओं में भगतसिंह के बारे में मिलती सूचनाएं बड़ी हद तक ऐतिहासिक तथ्यों पर पूरी उतरती हैं । मसलन भगतसिंह का सरकार से अनुरोध था कि सरकार के खिलाफ जंग करने का दोषी पाए जाने के कारण उसकी सजा फांसी नहीं, गोली से उड़ाया जाना होनी चाहिए । यही बात एक कवि ने इन शब्दों में लिखी है-
गोली से उड़ा दो मगर फांसी न लगाओ,
फांसी से ही लाचार है भगतसिंह ।।
भगतसिंह का विश्वास था कि जब तक वतन आजाद नहीं हो जाता, वह बार-बार जन्म लेकर अंग्रेज को भारत से निष्कासित किए जाने के युद्ध को तेज-दर-तेज करने के लिए संघर्षशील रहेगा । उनका यह भी मानना था कि उनकी मौत युवा वर्ग के मन में साम्राज्यवाद के प्रति नफरत की ऐसी चिनगारी लाएगी कि हजारों युवक अपना शीश हथेली पर रख कर स्वतंत्रता आदोलन में कूद पड़ेंगे । एक कवि ने लिखा है-
यह ना समझो कि भगतसिंह फांसी पर लटकाया गया
सैकड़ों भगत बना जाएंगे मरते-मरते ।।
अथवा
भाई हमारे मरने का मातम ना करना
कहानी मेरी भारत में कुछ कर दिखाएगी ।।
उनका यह भी विश्वास था कि साम्राज्यवादी सरकार उनके वजूद को खत्म कर सकती है, लेकिन उनकी विचारधारा सदैव बनी रहेगी । एक कवि के शब्दों में-
रहेगी आबो हवा में ख्याल की बिजली,
ये पुश्ते-खाक है फानि, रहे ना रहे ।
भगतसिंह की शहादत को विषय बना कर लिखी गई कभी कविताएं अपुति-काव्य के रूप में लिखी गई और इनको जन-समूहों में गाकर लोगों के पास पहुंचाया जाता था । इन कविताओं के रचयिता अपने आपको एक कवि के रूप में स्थापित हुआ देखने के इच्छुक नहीं थे, वे तो ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो अपनी काव्य रचना को भी स्वतंत्रता आदोलन के एक कार्य के रूप में देखते थे । इन लोगों का जो काव्य प्रकाशित किया गया वह भी इस मंशे के साथ कि ज्यादा-से-ज्यादा उन लोगों के हाथों में जाए जो इन्हें सुना कर लोगों के मन में देशप्रेम की भावना को प्रज्ज्वलित कर सकें । इसकी सार्थकता तथा प्रभाव को मानते हुए मिस्टर जे.ओ मिलर ने ठीक ही कहा कि ' 'जब कोई गिला शिकवा किसी लोकप्रिय तथा करुणामयी भावानात्मक गीत का विषय बनता है तो वह निश्चय ही लोकमानस को छूने के समर्थ हो जाता है ।''13
इस वर्ग के काव्य को लोगों के मन मस्तिष्क में जगह दिलाने के योग्य बनाने के लिए जहां इसका आजादी आंदोलन के एक समर्पित युवा नेता भगतसिंह से संबंधित होना है, वहां इसकी गेयधर्मिता ने भी कम योगदान नहीं किया । इन रचनाऔं में से ज्यादातर साधारण और सरल भाषा में रचे गए ऐसे गीत हैं, जिन्हें बालक, बूढ़ा, औरत, मर्द हर कोई सहज ही गा सकता था । इन गीतों में एक स्थायी पंक्ति मिलती है, जो बार-बार दोहराई जाती है । समूह गान के रूप में यदि सारा गीत नहीं गाया जा सकता तो भी स्थायी पंक्ति को सभी लोग मिल कर गाते थे । बार-बार दुहराई जाने वाली पंक्ति पाठक एवं श्रोतागण के हृदय को कवि के भाव से जोड्ने का काम करती और वे खुदबखुद ही स्थायी पंक्ति को दुहराना शुरू कर देते । इससे जहां एक ओर रचनाओं को लोगों की जुबान पर स्थान दिलाने में आसानी हाती वहीं रचना के प्रभाव में भी बढ़ोतरी होती ।
इस काव्य में मुख्य तौर पर वक्तव्यशैली इस्तेमाल हुई है, लेकिन कहीं संबोधन शैली भी है । कुछ रचनाएं हैं जिनमें भगतसिंह को संबोधन किया गया है, कुछ रचनाएं भगतसिंह के बोलों मैं हैं और कुछ अन्य रचनाएं ऐसी हैं जो भगतसिंह की शहादत से प्रेरणा प्राप्त किसी व्यक्ति द्वारा बोली गई है । हर सूरत में जो शब्द लिखे गए हैं, वह पूर्णतया भगतसिंह के चिंतन को अभिव्यक्त करते हैं । नीचे लिखी पंक्तियां भारत के युवाजनों को संबोधित हैं, जो युवाओं को न केवल भगतसिंह का संदेश है, बल्कि इस संदेश पर अमल करने की प्रेरणा भी है-
सुनो आज भारत के तुम नौजावानो ।
मेरे बाद तुम्हारा भी इम्तहान होगा ।।
और
नौजवानो तैयार हो जाओ मरने के लिए ।
देश की बेदी पर अब से सर चढ़ाया जाएगा ।।
बेशक इन रचनाओं के रचयिताओं ने अपनी रचनाओं को मुख्य तौर पर अपने विचारों के प्रसार-प्रचार का वाहन बनाया और काव्य को गौण स्थान दिया, लेकिन इसका यह काव्य केवल तुकबंदी नहीं है, इनमें अच्छे काव्य के गुण विद्यमान हैं।
सरदार भगतसिंह की शहादत को विषय बनाकर लिखी गई कविता के उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक प्रकृतिवाली एक सामयिक घटना को बयान करने के बावजूद यह केवल तत्कालिक अपील वाला काव्य नहीं है, यह चिरजीवी प्रेरणा देनेवाला काव्य है । यही कारण है कि इस घटना के बारे में शहादत के तुरंत बाद रचनाएं लिखी जानी शुरू हो गईं जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिखी जाती रहीं, अब भी लिखी जा रही हैं । देशवासियों के हित में तब तक लिखी जाती रहेगी, जब तक साम्यवादी सिद्धांतों पर आधारित उस राजनीतिक प्रबंध की स्थापना नहीं हो जाती, जिसकी कल्पना भगतसिंह और उनके साथियों ने की थी, और उसे वास्तविकता बनाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी ।
अनुक्रम
नौ
1
भगतसिंह का फसाना
2
सरदार भगतसिंह की कहानी
5
3
शहीदों की फांसी का नजारा
7
4
तेइस मार्च को
9
भगतसिंह
10
6
सादर गोरिया
11
आखिर फांसी उनको
12
8
भगतसिंह किधर गया
14
लाशों को शहीदों की
16
शमअ वतन के परवाने
17
तीन शहीद
18
भगतसिंह को फांसी
19
13
फांसी जिसे चढ़ा दिया
20
खून के छींटे
22
15
अलगरज कुछ भी निशाना
23
शहीदों के प्रति
24
खून के आसू
25
26
भगतसिंह की याद
27
28
21
मर्दाना भगतसिंह
29
प्यारा भगतसिंह
30
सरदार भगतसिंह
31
आह! भगतसिंह
33
35
भगतसिंह की फांसी
36
प्यारे भगत की सूरत
37
शहीद भगतसिंह
38
39
धन्य भगतसिंह
40
41
32
शत शत प्रणाम
42
लौह पुरुष भगतसिंह
44
34
शमअ आजादी के परवाने
45
फखरे हिंद
46
गम है दुबारा
47
स्व. भगतसिंह
48
अगर भगतसिंह और दत्त मर गए
50
फांसी के शहीद
51
सरदार कौन?
52
लाहौर की फांसी
53
जी जलाने के लिए
54
43
आजाद करा देंगे
.55
आजाद फिर होने को है
56
शेर हजारों नर निकले
57
गिरा के भागे ना बम
59
फांसी चढ़ाना है बुरा
60
ऐलान
61
49
मुकदमा साजिश लाहौर के
62
असीरान-ए-वतन की यादें
63
मिटा देंगे
64
पैगाम बनाम नौजवानान हिंद
66
ऐलान-ए-भगतसिंह
68
जालिम से
70
55
भगतसिंह का वैराग्य
71
जल्लाद से
73
आखिरी चेतावनी
75
58
भगतसिंह का पैगाम
76
फांसी के तख्ते पर
78
शहीदों का संदेशा
79
भगतसिंह का संदेशा
80
मरते मरते
81
आखिरी आदाब
82
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